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________________ इस विचार से तैल, घृत, वसादि से म्रक्षण करे, कल्क, लोध, चूर्ण से उवर्तित करे, शीतोष्ण जल से धोए, अनन्तर पृथ्वी पर अथवा दुर्बद्ध, अनिष्प्रकम्प, चलाचल पदार्थ पर वस्त्र को सुखाये, तपाये, स्निग्ध, सरजस्क और मृत्तिकामयी सचित्त पृथ्वी पर, सचित्त शिला पर, सचित्त पृथ्वी के खोट पर, सडी लकड़ी पर, वली पर, कुलिक पर, पीठ पर सुखाये, सुखातेहुए का अनुमोदन करे, वस्त्र से पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, कन्दमूल, वनस्पति, बीज, सप्राण जीवनिकाय को निकलवाये, वस्त्र को कोरे, स्वजन, परजन, उपासक, अनुपासक से ग्रामान्तर में, ग्राममार्गान्तर में, दीनता पूर्वक वस्त्र की याचना, करे। स्वज्ञातीय, अन्यज्ञातीय, उपासक वा अनुपासक को सभा में से उठाकर दीनता पूर्वक वस्त्र की याचना करे। ___ जो भिक्षु वस्त्र के निमित्त विहार न कर अधिक रहे, वस्त्रा के निमित्त वर्षावास रहे, रहते हुए का अनुमोदन करे, इस प्रकार का प्रतिसेवक भिक्षु उद्घातित चातुर्मासिक परिहार स्थान को पाता है। (१६) एकोनविंशोद्देशक:- जो भिक्षु विकट को खरीदे, खरीदावे, अथवा खरीदकर लाये हुए को ग्रहण करे। जो भिक्षु विकट को प्रामित्यक कराये, प्रामित्यक करके देने वाले से ग्रहण करे, परावर्तित करे, परावर्तित कराये, परावर्तित करके देने वाले से ग्रहण करे। विकट को उसके मालिक से छीन कर उसका न दिया हुअा ग्रहण करे । जो भिक्षु रोगी के निमित्त तीन से अधिक विकटदत्तियाँ ग्रहण करे। ___जो भिक्षु एक ग्राम से दूसरे ग्राम विहार करता हुआ विकट को साथ में ले। ___जो भिक्षु विकट गाले, गलवाये, गालकर दिया जाता ग्रहण करे। जो भिक्षु ४ सन्ध्याओं में स्वाध्याय करे, पूर्व सन्ध्या में, पश्चिम सन्ध्या में, अपराण्ह सन्ध्या में और अर्धरात्रि सन्ध्या में स्वाध्याय करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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