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जो भिक्षु कुलिक पर, शिला पर, ढेले पर जो निराधार हो, प्रकम्पित हो, दुर्बद्ध हो, दुनिक्षिप्त हो, चलाचल हो कायोत्सर्ग अथवा निषद्या चेतायें चेताते हुए का अनुमोदन करे।
जो भिक्षु पीठ, अर्गला, मंच, मण्डप, मंजिल, प्रासाद अथवा हर्म्यतल में जो दुर्बद्ध है, दुनिक्षिप्त है, चलाचल है, कायोत्सर्ग, निषद्या चेताता है, चेताते हुए का अनुमोदन करता है।
जो भिक्षु अन्य तीथिक अथवा गृहस्थ को शिल्प, श्लोक, अष्टापद (जुगार खेलना) कर्कटक (तर्क शास्त्र ) को सिखाए।
जो भिक्षु अन्य तीथिक, गृहस्थ को आगाढ वचन बोले, परुष वचन बोले अथवा अन्य किसी भी प्रकार की आशातना करे ।
जो भिक्षु अन्य तीर्थिक अथवा गृहस्थों के कौतुक कर्म करे, भूतिकर्म करे, प्रश्न करे, प्रश्नाप्रश्न करे, अतीत निमित्त कहे, अन्य तीथिक गृहस्थ को लक्षण व्यंजन कहे, स्वप्न कहे, विद्या का प्रयोग करे, मन्त्र का प्रयोग करे, योग का प्रयोग करे, करते हुए का अनुमोदन करे, जो भिक्षु भूले हुए, दिग्मूढ हुए, विपरीत मार्ग में गए हुए अन्य तीथिक को, गृहस्थ को, सन्धि बतावे, राह बतावे, धातु प्रयोग सिखावे, निधि का प्रवेदन करे, जो भिक्षु जल भृतपात्र में अपना प्रतिबिम्ब देखे, दर्पण में अपना शरीर देखे, जल भरे हुए कुण्डों में अपना मुंह देखे, घृत में मुंह देखे, फाणित में अपना मुंह देखे, देखते हुए का अनुमोदन करे।
जो भिक्षु वमन करे, विरेचन करे और बमन विरेचन दोनों करे। जो भिक्षु आरोग्यार्थ प्रतिकर्म करे, जो भिक्षु पार्श्वस्थ की प्रशंसा करे, कुशील की वन्दना प्रशंसा करे, अवसन्न की प्रशंसा वन्दना करे, नित्यक की प्रशंसा वन्दना करे, काथिक की वन्दना प्रशंसा करे, प्राश्निक की वन्दना प्रशंसा करे, मामक की वन्दना प्रशंसा करे, सम्प्रसारिक की प्रशंसा वन्दना करे। जो भिक्षु धात्री पिण्ड का सेवन करे, दूतीपिण्ड का सेवन करे, निमित्त पिण्ड का सेवन करे, आजीवक पिण्ड भोगवे, वनीपक पिण्ड भोगवे, चिकित्सा पिण्ड भोगवे, क्रोध पिण्ड, माया पिण्ड, मान पिण्ड, लोभ पिण्ड, विद्या
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