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से प्राथमिक १० सूत्रों में ब्रह्मचर्य का भंग करने अथवा मानसिक विकृतियाँ उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों से बचने के लिये भिक्षु को सावचेत किया गया है।
शेष सूत्रों में से ३८ तक में पग रखने के लिए सोपान मार्ग, जल निकलने के लिए नीक, शिक्यक अथवा शिक्यक के लिए वस्त्र, सौत्रिक अथवा रज्जुमयी चिलीमीली, सूई, उस्तरा, नखछेदन, कर्णशोधन की याचना करना और इन्हीं पदार्थो की अविधि से याचना करना, अपने खुद के लिए सूई आदि लाकर दूसरे को देना, वस्त्र सीने के लिए सूई मांगकर लाये और पात्र को सीए, वस्त्र काटने के लिए उस्तरा लाकर पात्र काटे, नखकाटने के लिए नखछेदन लाकर कांटा निकाले, कानों का मल निकालने के लिए कर्णशोधन लाकर दांतमल अथवा नखों का मल निकाले, लाई हुई सूई विगैरह विधि से वापस न दे, तुम्बे का पात्र, लकड़ी का पात्र अथवा मिट्टी का पात्र अन्य तीथिक अथवा गृहस्थ से घिसावे, ठीक करावे, अथवा अपने लिए मजबूत कराये, जानते हुए और स्मरण रखते हुए उपर्युक्त पदार्थ एक दूसरे को दे, दण्ड, लाठी, पादलेखनी, बांस की सूई अन्यतीर्थिक अथवा गृहस्थ से घिसाए अथवा उनको दे, पात्र के एक सांधा दे, पात्र को तीन से अधिक बार सांधे, पात्र को एक बन्ध से बांधे, पात्र को तीन से अधिक बन्ध दे, अनावश्यक अधिक पात्र को १॥ मास से अधिक समय तक अपने पास रखे, वस्त्र को एक बार तूने अथवा कारण से तीन से अधिक बार तूने, अविधि से सीए। वस्त्र की फाली खीले, वस्त्र की तीन फालियों से अधिक को खीले। वस्त्र की एक फाली, को गूंथे, वस्त्र को तीन से अधिक बार गूथे, थीगली के लिए विजातीय वस्त्र को ग्रहण करें, अतिरिक्त लिए हुए वस्त्र को डेढ मास के ऊपर रखे। अन्य तीथिक या गृहस्थ से गृहधूम को मंगावे, पूतिकर्म भोजन करे, उक्त सब बातों को करने वाला अथवा करते हुए का अनुमोदन करने वाला साधु, गुरुमासिक परिहार स्थान को प्राप्त होता है।
(२) द्वितोयोद्देशक- निशीथ के दूसरे उद्देशक में लकड़ी की
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