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________________ पूर्णिमाओं के बाद की प्रतिपदाएँ उन्हीं मास की प्रतिपदाएँ मानी जाती थीं और इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि निशीथ के निर्माण काल में अथवा स्थानांग सूत्र के व्यवस्थित होने और लिखे जाने के समय में उन प्रदेशों में अमान्त महीना चलता होगा, क्योंकि मौर्यकाल में खास करके कौटिल्य अर्थशास्त्र के निर्माण काल में तथा सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, ज्योतिष्करण्ड आदि जैन ज्योतिष सूत्रों में पूर्णान्त मास माना गया है, जो प्राचीन काल में भारत के पूर्वीय तथा पूर्वोत्तरीय देशों में चलता आया है, इस परिस्थिति में यही मानना पडता है कि स्थानांग, व्यवहार, निशीथ आदि सूत्र जहां निर्मित तथा व्यवस्थित हुए हैं उन प्रदेशों में उस समय में अमान्त महीना चलता होगा, “कत्तिय पाडिवए" शब्द का प्रयोग कार्तिकी पूर्णिमा के बाद आने वाली प्रतिपदा के लिए हुआ है, यदि वहां पूर्णिमान्त महीना चलता होता तो कार्तिकी पूर्णिमा के बाद की प्रतिपदा को “मग्गसिर पाडिवए" ऐसा लिखते परन्तु सूत्रों में ऐसा उल्लेख कहीं भी नहीं हुआ, इससे प्रमाणित होता है कि व्यवहारा ध्ययन तथा निशीथाध्ययन जहां वर्तमान रूप में निश्चित हुए है, उस प्रदेश में अमान्त महीना चलता था, और यह प्रदेश मालवा का दशपुर, विदिशा, आदि था, क्योंकि "वाराही-बृहत्संहिता आदि से भी यही जाना जाता है कि भारत के मध्यप्रदेशों में पहले अमान्त महीने का प्रचार था, वराहमिहिर तथा अन्य संहिताकार ज्योतिषियों ने शुक्ल प्रतिपदा से ही मास का प्रारम्भ माना है, इससे उस समय वहां अमान्त मास ही चलता था यह निश्चित है और इससे निशीथा ध्ययन तथा व्यवहार सूत्र का वर्तमान रूप आचार्य भद्रबाहु स्वामी के समय का नहीं है, किन्तु श्रुतधर आर्यरक्षित के समय का ही होना चाहिए यह बात निश्चित हो जाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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