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। उक्त तर्फबाजी से तो पण्डितजी ने अपनी बुद्धि का ही थाह बताया है और कुछ नहीं किया, भाष्यकार के सौराष्ट्र में रहकर भाष्य निर्माण करने का कोई प्रमाण नहीं दिया।
जैन सूत्रों के अधिकांश भाष्य विक्रम की पांचवी शती से सातवीं शती के अन्त तक में निर्मित हुए हैं, संघदास का प्रस्तुत निशीथ भाष्य विक्रम की छट्ठी शताब्दी में हुआ हो तो बाधक नहीं है, परन्तु उक्त समय में सौराष्ट्र देश की क्या स्थिति थी यह भी जान लेना आवश्यक है, क्योंकि श्वेत हणों के भारत में प्रवेश होने के बाद भारतवर्ष के पश्चिमोत्तर प्रदेश में बहुत ही क्रान्तियां हुई हैं, प्रारम्भ में तोरमाण के समय में तो धर्म सम्बन्धी विशेष क्रान्ति नहीं हुई, केवल राज्यों का परिवर्तन होने से गुर्जर आदि राज्य कर्तृजातियां दक्षिण दिशा की तरफ प्रवाहित हुई थीं, और ओसियां, मण्डोवर, जालोर, भीनमाल, अमरकोट, थराद आदि नगरों में आबाद हुए थे और उनके लश्करों में हजारों की संख्या में सैनिक और व्यापारी होने से इस राजस्थान के दक्षिण प्रदेश एवं मध्य भारत तक आए और बसे थे, तोरमाण के मरने के बाद उसके पुत्र मिहिर कुल के राज्य काल में राजकीय परिस्थिति के साथ-साथ धार्मिक परिस्थिति में भी पर्याप्त क्रान्ति हो चुकी थी, पैगम्बर मोहम्मद की तरह मिहिरगुल ने सभी धर्म के अनुयायियों को शैव बनाने अथवा अपने राज्य से चले जाने का चेलेन्ज दिया था, इस क्रान्ति काल में लाखों की संख्या में जैन गृहस्थ और हजारों की संख्या में जैन श्रमण-श्रमणियां उत्तर भारत का त्यागकर राजस्थान, मध्यभारत आदि प्रदेशों में आकार बसे थे।
उपर्युक्त परिस्थिति में आचार्य संघदास के निशीथ भाष्य का किस देश और स्थान में निर्माण हुआ, यह निश्चित कहना कठिन है, पण्डित मालवणिया ने भाष्य की ६५७-६५८-६५६ इन तीन गाथाओं के आधार से भाष्यकार के समय में प्रचलित नाणे का वर्णन किया है और लिखा है वस्त्र का मूल्य जघन्य मध्यम
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