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"दुइज्जता दुविहा, शिक्कारशिया तहेब कारणिया 1 असिवादि कारणिया, चक्के धूभाइया इयरे ॥ २६२७|| "
अर्थात् - 'विहार करने वाले दो प्रकार के होते हैं -- निष्कारणिक arr कारणिक, अशिवादि के निमित्त अपने क्षेत्र से जो अवधि के पहले विहार करते हैं, वे कारणिक विहार करने वाले हैं, तब धर्मचक्र, देवनिर्मित स्तूप आदि की यात्रा के लिए जो विहार करते हैं, वे निष्कारणिक हैं । '
तात्पर्य इसका यह है कि साधु साध्वी को निर्वाह योग्य क्षेत्र मिलने पर वर्षाकाल में चारमास और शीत, उष्ण काल में साधु को एक मास और साध्वी को दो मास वहां ठहरने के बाद आगे दूसरे क्षेत्रों में विहार करना चाहिए, इस प्रकार के विहार को निष्कारण विहार कहा है, परन्तु कई ऐसे कारण भी उपस्थित होते हैं, जिनके वश होकर श्रमणों को शास्त्रनियम तोडकर आगे विहार करना पड़ता है ।
मास के भीतर विहार कराने वाले कौन कौन कारण होते हैं, वे चूर्णिकार निम्नलिखित शब्दों में सूचित करते हैं
वा
असिवो मोदरियराट्ठखुभिय-उत्तमट्ठकारणा हवा उवधिकारणा, लेवकारणा वा गच्छे वा बहुगुणतरं ति खेतं, आयरियादी वा श्रगाढकारणे एतेहिं कारणेहि दुइच्जंता कारणिया । "
अर्थात् - 'जहां पर साधु ठहरे हुए हैं, उस क्षेत्र में हैजा आदि महामारी फैल जाय, दुर्भिक्ष के कारण साधुओं को भिक्षा मिलना दुर्लभ हो जाय वहां का शासक श्रमणों पर नाराज होकर उन्हें कष्ट दे, स्थानिक जनसमाज किन्हीं भी कारणों से क्षुब्ध होकर वहां से भाग जाय, अथवा किसी श्रमण को अनशन करना है परन्तु जहां ठहरे हुए हैं, वह क्षेत्र उस कार्य के योग्य न हो तो
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