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________________ पाणिनीयसूत्रवृत्ति काशिका कर्ता श्रीवामन और जयादित्य पाणिनीय अष्टाध्यायी पर सर्व से प्राचीन और विस्तृत आचार्य " व्याडि" कृत " संग्रह" नाम की टीका थी, जो कभी की विच्छिन्न हो चुकी है । 'संग्रह' के बाद पाणिनीय व्याकरण पर की टीकाओं में "पातञ्जल महाभाष्य" का नम्बर है, जो आज तक पठन पाठन में लिया जाता है, महाभाष्य के बाद में पाणिनीयाष्टक पर भर्तृहरि द्वारा टीका बनाई जाने की भी किंवदन्ती है, किन्तु उसकी सत्ता का कोई निश्चय नहीं, भाष्य के बाद की टीकाओं में आज "काशिकावृत्ति" सर्व प्रथम है, इसका निर्माण आचार्य " जयादित्य " द्वारा हुआ माना जाता है, मुद्रित काशिका के १६ पाद " जयादित्य " निर्मित हैं, तब २० वां पाद अर्थात् ५ वें अध्याय का चतुर्थ पाद आचार्य "वामन" निर्मित है । उसके बाद के तीन अध्यायों की काशिका भी " वामन" द्वारा ही बनाई गई है । इस प्रकार दो आचार्यों द्वारा टीका का निर्मित होना कारण सापेक्ष है । वे कारण दो हो सकते हैं, पहला तो यह कि "जयादित्य" पाणिनीयाष्टक के १६ पादों की टीका बनाकर स्वर्गवासी हो गये हों और ऊपर के १३ पादों की टीका "वामन" ने बनाकर सम्पूर्ण की हो । अथवा तो दोनों आचार्यों ने स्वतन्त्र टीकाएँ बनाई हों और बाद में दोनों खण्डित हो गई हों "जयादित्य" की टीका का अन्तिम भाग और " वामन" की टीका का आद्य भाग खण्डित हो जाने की अवस्था में पिछले लेखकों ने दोनों का अनुसन्धान कर " काशिका" को पूरा किया हो पर हमारी मान्यतानुसार दोनों आचार्यो की स्वतन्त्र टीकायें न मान कर प्रथम टीका की पूर्ति उत्तर भाग के बनाने वाले ने की यह मानना युक्ति संगत जान पड़ता है, क्योंकि दोनों की स्वतन्त्र टीकायें मानने में दोनों का एक नामकरण ठीक नहीं For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003122
Book TitlePrabandh Parijat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size18 MB
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