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तथाविधः (कोपि) परिश्रमो मे, नैवास्ति जाड्यं (च) तथा 'प्रकामम्' । [य] तथापि यत्पुस्तक वाचनाय प्रवृत्तिरेतद्गुरु पारतन्त्र्यम् ॥२॥
अर्थात्-'पाठक श्री रतनचन्द्रजी के शिष्य उपाध्याय भक्ति लाभ कहते हैं-मैंने यह कल्पान्तर्वाच्य संकलित किया है इसे विद्वान्गण पढ़े, यद्यपि मेरा शास्त्र श्रम अधिक नहीं हैं, मेरे में जड़ता ही अधिक है, फिर भी पुस्तक वाचना के लिए यह प्रवृत्ति की है, इसका कारण गुरु की आज्ञा मात्र है। ___ इसके बाद संकलनकार ने इसमें रही हुई भूलों के लिए दयावान् विद्वानों से क्षमा मांगी है, फिर भी कुछ श्लोकों में जैन सिद्धान्त-लिखने का फल, लक्ष्मी की चंचलता का वर्णन करने के उपरान्त अपनी भूलों की संघ से क्षमा प्रार्थना की है और "नगर रह चक्क पडमे०" इत्यादि गाथा से संघ की स्तुति कर एक संस्कृत पद्य में श्री संघ का अभिनन्दन किया है।
इस कल्पान्तर्वाच्य की प्रति के अन्त में लिखने का समय सूचित नहीं किया, फिर भी इसकी लिपि से कहा जा सकता है कि यह पुस्तक विक्रम की सत्रहवीं शती के अन्त में लिखी गयी होगी। (४) “सन्देह विषौषधि नामक कल्प पञ्जिका" ___ उपर्युक्त टीका जिसे इसके निर्माता आचार्य श्री जिनप्रभसूरि ने "सन्देह विषौषधी पञ्जिका' इस नाम से उल्लिखित किया है, इस पंजिका के कर्ता ने प्रथम श्लोक में "पर्युषणा-कल्प दुर्गपद विवृति'' यह नाम भी सूचित किया है, इस टीका के प्रारम्भ में दिये गए दो श्लोक नीचे लिखे अनुसार हैं:"ध्याचा श्री श्रुतदेवी, पर्युषणाकल्प दुर्ग-पद विवतिः । स्वपरानुग्रह हेतो, किं चिदियं लिख्यते मयका ॥१॥ हृदयानि सहृदयानां, पर्युषणा-कल्प गोचरा सुचिरम् । रञ्जयतु पञ्जिकेयं, सन्देह-विषौषधि नामा ॥२॥
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