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निबन्ध-निचय
थे कि समय पाकर जिनवल्लभ गरिण को आचार्य पद प्रदान कर देना । प्रसन्नचन्द्र सूरि को भी अपने जीवन दर्मियान जिनवल्लभ को आचार्य पद देने का अनुकूल समय नहीं मिला और अपने अन्तिम समय में इस कार्य को सफल करने की सूचना देवभद्र सूरि को कर गए थे और संवत् ११६७ में आचार्य देवभद्र ने कतिपय साधुत्रों के साथ चित्तौड़ जाकर जिनवल्लभ गरिण को आचार्य पद से विभूषित किया ।
उपर्युक्त वृत्तान्त पर गहराई से सोचने पर अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं । पहला तो यह कि यदि अभयदेव सूरिजी ने जिनवल्लभ गरिण को अपना शिष्य बना लिया था और विद्वत्ता आदि विशिष्ट गुणों से युक्त होने के कारण उसे आचार्य बनाना चाहते थे, तो गच्छ को पूछकर उसे आचार्य बना सकते थे । वर्धमान यादि अपने चार शिष्यों को आचार्य बना लिया था और गच्छ का विरोध नहीं हुआ, तो जिनवल्लभ के लिये विरोध क्यों होता ? जिनवल्लभ चैत्यवासी शिष्य होने से उसके आचार्य पद का विरोध होने की बात कही जाती है, जो थोथी दलील है, अभयदेवसूरिजी का शिष्य हो जाने के बाद वह चैत्यवासियों का शिष्य कैसे कहलाता, यह समझ में नहीं आता । मान लिया जाय कि जिनवल्लभ को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने के कार्य में श्री अभयदेव सूरिजी के शिष्यपरिवार में दो मत थे, तो चौवीस वर्ष के बाद उन्हें आचार्य कैसे बनाया ? क्या उस समय अभयदेव सूरिजी का शिष्यसमुदाय एकमत हो गया था ? अथवा समुदाय में दो भाग पाड़कर आचार्य देवभद्र ने यह कार्य किया
था
? जहां तक हमें इस प्रकरण का अनुभव है उक्त प्रकरण में कुछ और ही रहस्य छिपा हुआ था, जिसे खरतर गच्छ के निकटवर्ती आचार्यों ने प्रकट नहीं किया और पिछले लेखक इस रहस्य को खोलने में असमर्थ रहे हैं । खरतरगच्छ के प्राचीन ग्रन्थों के अवगाहन और इतर प्राचीन साहित्य का मनन करने से हमको प्रस्तुत प्रकरण का जो स्पष्ट दर्शन मिला है, उसे पाठक गरण के ज्ञानार्थ नीचे उपस्थित करते हैं
जिनवल्लभ वर्षों तक अभयदेव सूरि के शिष्यसमुदाय के साथ रहे थे, वे स्वयं विद्वान् एवं क्रियारुचि ग्रात्मा थे, वह समय अधिकांश
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