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निबन्ध-निचय
के बाद का इनका कोई ग्रन्थ दृष्टिगोचर नहीं हुआ, इससे हमारा अनुमान है कि आचार्य श्री अभयदेव सूरिजी ने अपने जीवन के अन्तिम दशक में शारीरिक अस्वास्थ्य अथवा अन्य किसी प्रतिबन्धक कारण से साहित्य के क्षेत्र में कोई कार्य नहीं किया। आपका स्वर्गवास भी पाटण से दूर "कपडवंज' में हरा था, अापके स्वर्गवास का निश्चित वर्ष भी श्री अभयदेव सूरि के अनुयायी होने का दावा करने वालों को मालूम नहीं है, इस परिस्थिति में यही मानना चाहिये कि श्री अभयदेव सूरिजी विक्रम संवत् ११२८ के बाद गुजरात के मध्य प्रदेश में हो विचरे हैं। खरतर गच्छ के अर्वाचीन किसी किसी लेखक ने इनके स्वर्गवास का समय सं० ११५१ लिखा है, तब किसी ने जिनवल्लभ गणी को सं० ११६७ में अभयदेव सूरि के हाथ से सूरि-मन्त्र प्रदान करने का लिखकर अपने अज्ञान का प्रदर्शन किया है। अभयदेव सूरिजी ११५१ अथवा ११६७ तक जीवित नहीं रहे थे, अनेक अन्यगच्छीय पट्टावलियों में इनका स्वर्गवास ११३५ में और मतान्तर से ११३६ में लिखा है, जो ठीक प्रतीत होता है, आचार्य जिनदत्त कृत "गणधर-सार्धशतक' की वृत्तियों में श्री सुमति गणि तथा सर्वराज गरिण ने भी अभयदेव सूरिजी के स्वर्गवास के समय की कुछ भी सूचना नहीं की, इसलिए “बृहद् पौषध-शालिक" आदि गच्छों की पट्टावलियों में लिखा हुअा अभयदेव सूरिजी का निर्वाण समय ही सही मान लेना चाहिए ।
अभयदेव सूरि का स्वर्गवास मतान्तर के हिसाब से संवत् ११३६ में मान लें तो भी संवत् ११६७ का अन्तर २८ वर्ष का होता है । खरतर गच्छ के तमाम लेखकों का ऐकमत्य है कि संवत् ११६७ में जिनवल्लभ गरिण को देवभद्र सूरि ने प्राचार्य अभयदेव सूरिजी के पट्ट पर प्रतिष्ठित कर उन्हें प्राचार्य बनाया था। खरतर गच्छ के लगभग सभी लेखकों का कथन है, कि अभयदेव सूरिजी स्वयं जिनवल्लभ को अपना पट्टधर बनाना चाहते थे, परन्तु चैत्यवासि-शिष्य होने के कारण गच्छ इसमें सम्मत नहीं होगा, इस भय से उन्होंने जिनबल्लभ को आचार्य नहीं बनाया, परन्तु अपने शिष्य प्रसन्नचन्द्राचार्य को कह गये
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