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निबन्ध-निचय
आदि जो लोक-विघ्नकारी हैं उनको जिनेश्वर शासनदेवगण अपने प्रभाव और शक्ति से शान्त करें और इच्छित कार्य की सिद्धि दें, ऐसी हरिवंशपुराणकार ने पढ़ने वालों के लिये आशंसा की है। इस प्रकार देवताओं की प्राशा और विश्वास १०वी ११वीं शती के पूर्वकालीन जैन श्रमणों में नहीं था।
पुन्नाटसंघीय प्राचार्य जिनसेन की गुरु-परम्परा
प्राचार्य जिनसेन ने "हरिवंशपुराण" के अन्तिम सर्ग में अपनी गुर्वावली के नामों की बड़ी सूची दी है। इस सूची के प्रारम्भिक लोहार्य तक के नाम "त्रैलोक्यप्रज्ञप्ति" आदि अन्य ग्रन्थों में मिलते हैं, परन्तु इनके प्रागे के विनयधर, श्रुतगुप्त, ऋषिगुप्त, शिवगुप्त, मन्दरार्य, मित्रवीर्य, बलमित्र, देवमित्र, सिंहबल, वीरवित्त, पद्मसेन, व्याघ्रहस्त, नागहस्ती और जितदण्ड ये १४ प्रकीर्णक नाम शंका से रहित नहीं हैं। क्योंकि प्रस्तुत पुराण के अतिरिक्त अन्य किसी ग्रन्थ या शिलालेख में इन नामों का क्रमिक उपन्यास नहीं मिलता और इनके आगे के नन्दिषेण से जिनसेन पर्यन्त के १८ अव्यवच्छिन्न सेनान्त नाम हैं। इस नामावली में भी हमको तो कृत्रिमता की गन्ध आती है, क्योंकि सेनान्त नामों की इतनी लम्बी सूची अन्यत्र नहीं मिलती। प्राचार्य जिनसेन ने अपने "हरिवंशपराण" में शक संवत् ७०५ का उल्लेख किया है, अर्थात् इस संवत्सर में "हरिवंशपुराण" की समाप्ति सूचित की है। इनके पूर्ववर्ती सेनान्त नामों में नन्दिषेण यह नाम १८वाँ होता है। प्रति नाम के पीछे उनके सत्ता-समय के २५ वर्ष मान लिये जाएँ, तो भी नन्दिषेण का समय जिनसेन के पहले ४५० वर्ष पर पहुंचता है। परन्तु प्राचीन शिलालेखों तथा ग्रन्थों में सेनान्त नामों का कहीं नाम-निशान नहीं मिलता।
इस विषय में डा० गुलाबचन्द्रजी चौधरी लिखते हैं
"यद्यपि लेखों में इसका सर्वप्रथम उल्लेख मूलगुण्ड से प्राप्त नं० १३७ ( सन् ६०३) में हुआ है, पर इसके पहले नवमी शताब्दी के उत्तरार्ध ( सन् ८६८ के पहले ) में उत्तरपुराण के रचयिता गुणचन्द्र ने अपने गुरु
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