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निबन्ध-निचय
" प्रशस्ततिथि-नक्षत्र - योग- वारादि लब्धयः । सुलब्धसुकुला भूपा, जग्मुरत्पैः प्रयाणकैः || २४|"
उपर्युक्त श्लोक में तिथि, नक्षत्र, योग के अतिरिक्त "वार" शब्द का प्रयोग किया गया है जो ग्रन्थ की अर्वाचीनता का सूचक है । क्योंकि नयी पद्धति का भारतीय ज्योतिष विक्रम की १०वीं शती के पहले लोकमान्य नहीं हुआ था । सर्वप्रथम तिथि, नक्षत्र और मुहूर्त प्रचलित थे, फिर करण आया परन्तु वार को कोई नहीं पूछता था । करण के बाद “लग्न” शब्द कहीं-कहीं प्रयुक्त होने लगा, जो नवमी शती के किसी किसी लेखग्रन्थ में मिलता है और वार शब्द तो नवमी शती तक भी किसी लेख या प्रशस्ति में दृष्टिगोचर नहीं होता । विक्रम की दशवीं शती के एक-दो लेखों में एक-दो स्थानों में वार शब्द दृष्टिगोचर हुआ है । इससे इतना कह सकते हैं कि "हरिवंशपुराण" की रचना के समय में वार शब्द प्रयोग में आने लगा था ।
हरिवंश के ५८वें सर्ग के श्लोक में आया हुआ प्रविद्या शब्द शंकरा - चार्य के ब्रह्मवाद के प्रचार के बाद का है । शंकराचार्य का सत्ता- समय विक्रम की नवमी शती में माना गया है । इससे ज्ञात होता है, आचार्य शंकर के ब्रह्मवाद का सार्वत्रिक प्रचार होने के बाद, आचार्य जिनसेन ने हरिवंशपुराण की रचना की है ।
हरिवंश के ६६ वें सर्ग में भारत में दीपावली प्रचलित होने के कारण बताये हैं और तब से दीपावली भारत में होने का लिखा है । दीपावलो की इस कथा से भी जिनसेन का यह पुराण अर्वाचीन ठहरता है । श्वेताम्बर साहित्य में दीपावली की कथा १२वीं शती के पहले की उपलब्ध नहीं होती ।
हरिवंश के कवि प्राचार्य जिनसेन ने २४ तीर्थङ्करों के शासनदेवदेवियों का सूचन किया है और "अप्रतिचक्रा" तथा " ऊर्जयन्तस्थ अम्बादेवी” का उल्लेख किया है । इतना ही नहीं बल्कि ग्रह, भूत, पिशाच, राक्षस
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