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________________ ३०४ : निबन्ध-निचय दृष्टोऽयं हरिवंशपुण्यचरितः श्रीपर्वतः सर्वतो, व्याप्ताशामुखमण्डलः स्थिरतरः स्थेयात् पृथिव्यां चिरम् ॥" 'जिसने अन्य संघों की परम्पराओं को त्याग दिया है ऐसे बृहत् पुन्नाट संघ के वंश में व्याप्त हरिवंशपुराण रूप श्रिीपर्वत" की भवान्तर में बोधिलाभार्थ कवि जिनसेन ने ग्रन्थ-रचना द्वारा सव दिशाओं में प्रसिद्ध किया जो पृथ्वी पर सदा स्थिर रहे । ऊपर के पद्य में कवि ने दो बातों की सूचना की है (१) यह कि कवि जिनसेन के पुन्नाट संघ का पहले यापनीय, कूर्चक, श्वेताम्बर आदि अनेक अन्य संघों के साथ सम्पर्क था जो जिनसेन की पुराणरचना के पहले ही टूट गया था। (२) हरिवंश पुराण का कथावस्तु पुन्नाट संघ के वंश में से प्राप्त किया है। (१) कवि की अन्य संघों से सम्बन्ध विच्छेद होने की बात बताती है कि प्रस्तुत पुराण का रचनाकाल विक्रम की ११वीं शती के प्रारम्भ का है, पहले का नहीं। क्योंकि विक्रम की दशवीं शती के पूर्वार्ध तक "यापनीय संघ" उन्नति पर था। "अमोघ वर्ष" जैसे इसके सहायक थे, आचार्य "पाल्यकीर्ति (शाकटायन)" जैसे इसके उपदेशक थे। उस समय में यापनीयों का सम्बन्ध अन्य संघों से बना हुआ था। यही कारण है कि उस समय में केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति का समर्थन करने वाले प्रकरण बने थे, परन्तु उसके बाद धीरे धीरे यापनीय संघ का ह्रास होता गया और परिणामस्वरूप विक्रम की १२वीं शती तक इसका अस्तित्व ही नामशेष हो गया था। नग्नता के नाते अधिकांश यापनीय संघ दिगम्बर परम्परा में सम्मिलित हो गया था। कूर्चक आदि छोटे सम्प्रदाय श्वेताम्बरों के अन्तर्गत हो गये। परिणाम यह आया कि इस समय के बाद के लेखों अथवा ग्रन्थों की प्रशस्तियों में से यापनीय संघ और कूर्चक संघ ये नाम अदृश्य हो गये। प्राचार्य जिनसेन के अनेक उल्लेखों से प्रमाणित होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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