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निबन्ध-निचय
उस भूमिभाग में ईति उपद्रवादि नहीं होते। अहोरात्रादि समय शुभ बन जाता है और “अन्धे रूप देखते हैं, बहरे शब्द सुनते हैं, गूंगे स्पष्ट बोलते हैं और पंगुजन भी जोरों से चलने लगते हैं ।" इस निरूपण में कवि ने ७७वें श्लोक में अन्धे रूप देखते हैं इत्यादि जो कथन किया है वह शास्त्रानुसारी नहीं है। तीर्थङ्करों के पुण्य अतिशयों के कारण ईति उपद्रवादि का शान्त होना, नई अशुभ घटनाओं का न होना और ऋतुओं का अनुकूल होना आदि सब ठीक हैं, परन्तु अन्धे व्यक्ति का देखना, बधिर का सुनना, गंगे का बोलना और पंग का चलना इत्यादि बातें अतिशयसाध्य नहीं हैं। ऐसी असम्भवित बातों को सम्भवित मानकर तीर्थङ्करों के खरे प्रभाव पर भी लोगों की अश्रद्धा उत्पन्न करना है।
भगवान् नेमिनाथ को सुराष्ट्रा, मत्स्य, लाट, सूरसेन, पटच्चर, कुरु जाँगल, कुशाग्र, मगध, अंग-बंग, कलिंगादि अनेक देशों में विहार करा कर कवि मलय देश के भद्दिलपुर नगर के बाहर सहस्रामवन में पहुंचाते हैं, परन्तु जैन सूत्रों के आधार से भगवान् नेमिनाथ का विहार सुराष्ट्रा के अतिरिक्त उत्तर भारत के देशों में ही हुआ था। भगवान् स्वयं और उनके शिष्य थावच्चा-पुत्रादि हजारों साधु काश्मीरी घाटियों, हिमालय की श्वेत पहाड़ियों और उनके निकटवर्ती नगरों में विचरते थे। थावच्चापुत्र मुनि, उनके शिष्य शुक परिव्राजक और उनके हजार शिष्य उन्हीं धवल पहाड़ियों पर जो पुण्डरीक पर्वत के नाम से पहिचानी जाती थी, अनशन करके निर्वाण प्राप्त हुए थे। तीर्थङ्कर नेमिनाथ गिरनार पर्वत पर और उनके अनेक शिष्य सौराष्ट्र स्थित "शत्रुञ्जय" पर्वत पर अनशन करके सिद्ध हुए थे। इस परिस्थिति में नेमिनाथ के अंग, वंग आदि सुदूरपूर्ववर्ती देशों में विहार करने का वर्णन करना संगत नहीं हो सकता।
कवि ने तीर्थङ्कर नेमिनाथ को अंग, वंग तक ही नहीं दक्षिण में सुदूर द्रविड़ प्रदेश तक भ्रमण करा दिया है । कृष्ण वासुदेव ने जब पाण्डवों को अपने देश से निर्वासन की आज्ञा दी, तब उन्होंने सकुटुम्ब दक्षिण में जाकर मल्ल देश में मथुरा नामक नगरी बसा कर वहाँ का राज्य करने लगे। कालान्तर में तीर्थङ्कर नेमिनाथ पल्लव देश की तरफ विचरे और
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