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________________ निबन्ध - निचय पापश्रुत का निरूपण करते हुए इन्होंने " वात्स्यायन" शास्त्र के साथ "कोकशास्त्र " का भी नाम निर्देश किया है जो इनकी अर्वाचीनता प्रमाणित करता है । वसुनन्दि की "सिद्धान्तचक्रवर्ती" इस उपाधि के अनुसार ये "कर्मग्रन्थ " तथा "तिलोयपण्णत्ति" के विषय के अच्छे जानकार मालूम होते हैं । अधिकार ११ - १२ की टीका में इन्होंने जो विद्वत्ता दिखाई हैइससे इनके सिद्धान्त - चक्रवर्तित्व का आभास मिलता है, परन्तु शेप दश अधिकारों की संख्या में इन्होंने कमजोरी ही नहीं अनभिज्ञता तक दिखाई है । इसके दो कारण ज्ञात होते हैं - एक तो यह कि इस ग्रन्थ पर वसुनन्दि के पूर्व को बनी हुई कोई टीका नहीं थी और दूसरा यह कि यह ग्रन्थ खासकर श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थ "प्रावश्यक निर्युक्ति, दशवैकालिक सूत्र" आदि के आधार पर संग्रहीत किया गया है और वसुनन्दि के पास न उक्त श्वेताम्बर ग्रन्थ थे, न श्वेताम्बर परम्परा की आचारविषयक परिभाषाओं का ज्ञान । इसलिये कई स्थानों पर बिना समझे ही मूल ग्रन्थ की बातों को गुड़गोबर कर दिया है । सबसे अधिक इन्होंने ! " षडावश्यकाधिकार" में अपनी अनभिज्ञता प्रदर्शित की है । अन्य स्थानों पर भी जहाँ कहीं श्वेताम्बरीय सिद्धान्तों की गाथाओंों की व्याख्या की है, वहाँ कुछ न कुछ भूल की ही है । उदाहरण के लिए - पंचाचाराधिकार की ८०वीं गाथा श्वेताम्बरीय प्रावश्यक निर्युक्ति की है । इसमें गरणधर, प्रत्येकबुद्ध, श्रुतकेवली और अभिन्न दशपूर्वधर स्थविर की रचना को ! " सूत्र" के नाम से व्यवहार करने का कहा है । इसके ! " अभिण्णद सपुव्विकधिदं च" इसकी व्याख्या करते हुए का अर्थ करते हुए श्राप कहते हैं - " प्रभिन्नानि रागादिभिरपरिणतानि दश पूर्वारिण" अर्थात् - ' रागादि से अपरिगत दश पूर्व' ऐसा अर्थ लगाया है । परन्तु वास्तव में इसका अर्थ होता है - " सम्पूर्ण दशपूर्व" और ऐसे " सम्पूर्ण दश पूर्वी के जानने वाले श्रुतधर की कृति को " सूत्र" माना गया है । यह तो एक मात्र उदाहरण बताया है, वास्तव में इस प्रकार की साधारण भूलें गणित हैं । चतुर्थ चरण में "अभिन्न दस पूर्व " २८० : - प्राचार्य वसुनन्दी ने इस टीका में अपना विशेष परिचय नहीं दिया । अन्त में एक पद्य में इस मूलाचार की वृत्ति का "वसुनन्दी वृत्ति" के नाम से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003121
Book TitleNibandh Nichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1965
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size13 MB
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