________________
दिगम्बर जैन प र प रा का प्रा चीन और मध्य का लीन साहित्य
दिगम्बर परम्परा, श्वेताम्बर संघ तथा यापनीय संघ से सर्वथा पृथक् हो गई थी और उनके आगमों तक का त्याग कर दिया था। तब उसे अपने साहित्य की चिन्ता उत्पन्न हुई। पार्थक्य के समय तक श्वेताम्बरमान्य आगमों की दो वाचनाएँ हो चुकी थी, इसलिए श्वेताम्बर मान्य
आगमों का मिलना दुष्कर नहीं था। दिगम्बर मुनियों ने अपने धार्मिक दानों में "पुस्तकदान” को महत्त्व दिया और भक्त गृहस्थों ने कहीं से भी हस्त-लिखित पुस्तक प्राप्त कर अथवा उसकी प्रति लिखवाकर अपने पूजनीय मुनियों को दान देने की प्रथा प्रचलित की। परिणामस्वरूप उन सूत्र पुस्तकों का आधार लेकर विद्वान् साधूत्रों ने सिद्धान्त-विषयक ग्रन्थों का सूत्रों में अथवा गाथाओं में निर्माण किया। इस प्रकार के ग्रन्थों में 'षट् खण्डागम, भगवती आराधना, मूलाचार" आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । "षट्-खण्डागम” का प्रथम खण्ड भूतबलिकी और शेष पांच खण्ड पुष्पदन्त की कृति मानी जाती है। "भगवती आराधना" प्राचार्य शिवार्य को कृति है, ऐसा उसकी प्रशस्ति में ग्रन्थकार स्वयं लिखते हैं । "मूलाचार" नामक ग्रन्थ आचार्य “वट्टकेर” अथवा तो “वट्टकेरल' की कृति मानी माती है।
उपर्युक्त तीनों ग्रन्थ स्त्रीमुक्ति को मानने वाले हैं। पिछले दो ग्रन्थ साधुओं के लिए प्रापवादिक उपधिका भी प्रतिपादन करते हैं और "षट्खण्डागम' सूत्र में भी कुछ ऐसे विषय हैं जो इन ग्रन्थों का अर्वाचीनत्त्व सूचित करते हैं। हमारी राय में इन तीनों प्राचीन ग्रन्थों का निर्माण विक्रम की सप्तम शती के पूर्व का और अष्टम शती के बाद का नहीं है,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org