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ले० : ५० कल्याणविजय गरिण है
बंधारणीय शिस्त के हिमायतित्रों को
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ता० ११-७-६१ के “हितमित-पथ्यं सत्यम्" नामक एक मासिक पाने में “महत्त्वनी नोंधो" इस शीर्षक के नीचे उक्त पाने के सम्पादक अरविन्द अम. पारख ने पण्डित बेचरदासजी दोसी ने “कल्याण-कलिका" की प्रस्तावना के आधार पर कुछ समय पहले "जैन' पत्र में एक लेख प्रकाशित कराया था, उस लेख को पढ़कर शासनसंस्था के अनुशासन की हिमायत करते हुए सम्पादक महोदय ने हमें सलाह देने का साहस किया है। जो कि उन्होंने "कल्याण-कलिका" को अथवा उसकी प्रस्तावना को पढ़ा नहीं है, न हमारी अन्य कतियों को ही पढ़कर हमारे विचारों से परिचित हुए हैं। केवल "जिन-पूजा-पद्धति' को ही पढ़ा हो इतना उनके लेख से ज्ञात होता है ।
सम्पादक की टिप्पणी का सार यह है कि 'पंन्यासजी को ऐसी प्रस्तावना लिखने के पूर्व शासन-संस्था के अनुशासन के खातिर इस विषय के ज्ञाता पुरुषों से परामर्श करके ऐसी कोई प्रामाणिक प्रस्तावना लिखनी चाहिए थी।'
श्री पारख को हम पूछना चाहते हैं कि किसी भी शास्त्रविषयक लेख के लिखने के पहले उस विषय के ज्ञाताओं से सलाह लेना हमारे लिए ही जरूरी है अथवा अन्य लेखकों के लिए भी ? यदि हमारे लिए ही उनका यह मार्ग-दर्शन है, तो इसका कोई अर्थ ही नहीं। सम्पादक ने हमारा कोई ग्रन्थ पढ़ा नहीं, हमारे विचारों से परिचित नहीं और हमको हित सलाह देने को तत्पर होना, इसका हम कोई अर्थ नहीं समझते । हमारी "जिन
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