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निबन्ध-निचय
बात है, न लेखकों की शासन-संस्था का शिस्त भंग करने वाले व्यक्ति को संघ से निकाल देने की बात । १५ वीं सदी के अन्त में बने हए 'प्राचारप्रदीप' में ज्ञानाचारादि पाँच प्रकार के प्राचारों को शुद्ध पालने का उपदेश है और उनमें अतिचार लगाने पर भवान्तर में उनको अशुभ फल मिलने के दृष्टान्त हैं। प्राचार दिनकर' १५वीं सदी का एक ग्रन्थ है, इसमें शिथिलाचार्यों की मान्यताओं का निरूपण है और दिगम्बर भट्टारकों के प्रतिष्ठा-पाठ, पूजा-पाठ और पौराणिक शान्तियों का संग्रह है। यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार प्रामाणिक कहा नहीं जा सकता और इसमें भी संघ के बंधारण का निरूपण नहीं है। "प्राचारोपदेश" सत्रहवीं सदी के लगभग प्रारम्भ का छोटा-सा ग्रन्थ है, इसमें श्रावकों के उपयुक्त पूजा आदि आचार मार्ग का प्रतिपादन किया गया है। संघ के बंधारण में इसकी कोई उपयोगिता नहीं । “गुरुतत्त्वविनिश्चय" ग्रन्थ में गुरुतत्त्व की पहिचान के लिए शिथिलाचारियों का खण्डन किया है और गुरु कैसे होने चाहिए, इस बात का प्रतिपादन किया है। इसमें भी संघ के बंधारण की रूपरेखा का कोई साधन नहीं है, न शासन संस्था का शिस्त भंग करने वालों के लिए प्रतिकार है।
"व्यवहार" और "बृहत्कल्प" दोनों छेद सूत्र हैं। कल्प में किन-किन बातों से श्रमण-श्रमणी को प्रायश्चित लगता है, यह निरूपण है। व्यवहार में भी वर्णन तो अपराध पदों तथा प्रायश्चित पदों का ही है, परन्तु इसमें प्रायश्चित देने का तरीका विशेष रूप से बताया गया है, जिसके कारण इसका नाम “व्यवहार" रखा ।
"निशीथ" उपयुक्त छेद-सूत्रों के बाद व्यवस्थित किया गया छेद-सूत्र है। इसमें कल्प, व्यवहार, दोनों सूत्रों का प्रायः सारभाग आ जाता है । "महानिशीथ" प्राचीनकाल में जो था, वह अब नहीं है। वर्तमान महानिशोथ प्रायः विक्रम की नवमी शताब्दी का सन्दर्भ है। इसके उद्धारक प्रसिद्ध श्रुतधर हरिभद्रसूरि कहे गए हैं, परन्तु हरिभद्रसूरि के समय में इसका अस्तित्व ही नहीं था। यह बात अनेक प्रमाणों के आधार पर निश्चित हुई है। महानिशीथ के सप्तम अध्याय में प्रायश्चितों का निरूपण
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