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निबन्ध-निचय
'खैतक-गिरि-कल्प संक्षेप' में इस तीर्थ के विषय में कहा गया हैभगवान् नेमिनाथ ने छत्रशिला के समीप शिलासन पर दीक्षा ग्रहण की। सहस्राम्रवन की ओर अवलोकन नामक ऊँचे शिखर पर निर्वाण प्राप्त किया।
"खैतक की मेखला में कृष्ण वासुदेव ने निष्क्रमणादि तीन कल्याणकों के उत्सव करके रत्न-प्रतिमाओं से शोभित तीन जिनचैत्य तथा एक अम्बा देवी का मन्दिर बनवाया। (वि० ती० क० पृ० ६ )
"खैतक-गिरि कल्प में कहा है-पश्चिम दिशा में सौराष्ट्र देश स्थित रैवतक पर्वतराज के शिखर पर श्रीनेमिनाथ का बहुत ऊँचे शिखर वाला भवन था, जिसमें पहले भगवान् नेमिनाथ की लेपमयी प्रतिमा प्रतिष्ठित थी। एक समय उत्तरापथ के विभूषण समान काश्मीर देश से "अजित" तथा "रतना" नामक दो भाई संघपति बनकर गिरनार तीर्थ की यात्रा करने आए और भक्तिवश केसर चन्दनादि के घोल से कलश भरकर उस प्रतिमा को अभिषिक्त किया। परिणामस्वरूप वह लेपमयी प्रतिमा लेप के गल जाने से बहुत ही बिगड़ गई। इस घटना से संघपति युगल बहुत ही दुःखी हुआ और आहार का त्याग कर दिया। इक्कीस दिन के उपवास के अन्त में भगवती अम्बिका देवी वहां प्रत्यक्ष हुई और संघपति को उठाया । उसने देवी को देखकर 'जय जय' शब्द किया । देवी ने संघपति को एक रत्नमयी प्रतिमा देते हुए कहा-लो यह प्रतिमा ले जाकर बैठा दो, पर प्रतिमा को स्थल पर बैठाने के पहले पीछे न देखना । संघाति अजित सूत के कच्चे धागे के सहारे प्रतिमा को अन्दर ले जा रहा था। वह प्रतिमा के साथ "नेमि भवन" के सुवर्णबलानक में पहुंचा और बिंब के द्वार की देहली के ऊपर पहुंचते संघपति का हृदय हर्ष से उमड़ पड़ा और देवी की शिक्षा को भूलकर सहसा उसका मुंह पिछली तरफ मुड़ गया और प्रतिमा वहां ही निश्चल हो गयी। देवी ने “जय जय" शब्द के साथ पुष्पवृष्टि की। यह प्रतिमा संघपति द्वारा नवनिर्मित जिन-प्रासाद में वैशाख शुक्ल पूणिमा को प्रतिष्ठित हुई। स्नपनादि महोत्सव करके संघपति :"अजित" अपने भाई के साथ स्वदेश पहुंचा। कलिकाल में मनुष्यों के चित्त की
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