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निबन्ध-निचय
सिद्धस्तव की यह तथा इसके बाद की "चत्तारिअट्ठ' ये दोनों गाथायें प्रक्षिप्त मालुम होती हैं। परन्तु ये कब और किसने प्रक्षिप्त की यह कहना कठिन है। प्रभावक-चरितान्तर्गत प्राचार्य “बप्पट्टि' के प्रबन्ध में एक उपाख्यान है, जिसका सारांश यह है
__ "एक समय शत्रुजय-उज्जयंत तीर्थ की यात्रा के लिए "राजा आम" संघ लेकर उज्जयंत की तलहटी में पहुँचा। वहां - दिगम्बर जैन संघ" भी आया हुआ था, उसने आम को ऊपर जाने से रोका, तब ग्राम के सैनिक बल का प्रयोग करने को उद्यत हुए। “बप्पट्टि सूरि" ने उनको रुकवाकर कहा-धार्मिक कार्यों के निमित्त प्राणी संहार करना अनुचित है । इस झगड़े का निपटारा दूसरे प्रकार से होना चाहिए। प्राचार्य ने कहादो कुमारी कन्याओं को बुलाना चाहिये। श्वेताम्बरों की कन्या दिगम्बर संघ के पास और दिगम्बर संघ की कन्या श्वेताम्बर संघ के पास रखी जाय। फिर दोनों संघों के अग्रेसर धर्माचार्य, कन्याओं को तीर्थ का निर्णय करने का प्रमाण पूछे। दोनों संघों के वृद्धों ने उक्त बात को मान्य किया, तब आचार्य बप्पभट्टि सूरि ने श्वेताम्बर संघ की तरफ खड़ी दिगम्बर संघ की कन्या के मुख से अम्बिका देवी द्वारा "उज्जितसेलसिहरे" यह गाथा कहलायी और तीर्थ श्वेताम्बर सम्प्रदाय का स्थापित किया।"
परन्तु यह उपाख्यान ऐतिहासिक दृष्टि से मूल्यवान् नहीं है, क्योंकि प्राचार्य बप्पभट्टि विक्रम संवत् ३०० में जन्मे थे और नवमी शताब्दी में उनका जीवन व्यतीत हुआ था। तब प्राचार्य हरिभद्र सूरिजी, जो इनके सौ वर्षों से भी अधिक पूर्ववर्ती थे, आवश्यकटीका में कहते हैं
"सिद्धस्तव की प्रादि की तीन गाथायें नियम पूर्वक बोली जाती हैं । परन्तु अन्तिम दो गाथाओं के बोलने का नियम नहीं हैं ।"
इससे यह सिद्ध होता है कि ये गाथाएँ हैं तो प्राचीन, फिर भी हरिभन्न सूरिजी ने ही नहीं इनके परवर्ती प्राचार्य हेमचन्द्र सूरिजी आदि ने भी अपने ग्रन्थों में यही प्राशय व्यक्त किया है। इससे ये गाथायें प्रक्षिप्त हो होनी चाहिए।
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