________________
निबन्ध-निचय
: १४५
हुआ पाठ देखा हो तो निशंकता से जाहिर करे। हम भी उनके कथन पर फिर विचार करेंगे।
नं० ४७-४८-४९-५०-५१-५२-५३ ये भूलं प्रत्याख्यानो के पाठों की हैं। इनकी संख्या सात लिखी है, पर वास्तव में सब भूलें गिनने पर १३ होती हैं, क्योंकि कोई दो बार और कोई चार बार आई हुई हैं। इन भूलों के सम्बन्ध में लिखते हुए श्री गांधी कहते हैं कि प्रत्याख्यान में अनेक पाठान्तर हैं, पर यह उनकी एक कल्पना मात्र है। ऊपर बताई हुई भूलों में कोई भी भूल पाठान्तर रूप नहीं परन्तु वास्तविक अशुद्धि है। 'बहुलेवेण' इस भूल को वे वृत्ति के आधार पर शुद्ध पाठ मानते हैं, परन्तु उस वृत्ति का कर्ता कौन और उस वृत्ति का नाम क्या? यह कुछ भी नहीं लिखा। इससे मालूम होता है कि यह आपने अपने बचाव का उपाय खोजा है। इन भूलों को कोई भी टीकाकार पाठान्तर के रूप में भी शुद्ध नहीं मानेंगे, क्योंकि पानी के "छः आकारों में दो दो आकार एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी' हैं। “लेवेण, अलेवेण, अच्छेण, बहलेण, ससित्थ, असित्थ" ये दो दो शब्द एक दूसरे पानी की भिन्नता बताते हैं, इसलिए "लेप" शब्द "अलेव" के साथ आ गया है। फिर "बहुलेव" शब्द को इस स्थल पर अवकाश नहीं रहता और "बहुलेव" वाला पानी प्रत्याख्यान में कल्प्य भी नहीं है। अतः "बहुलेव" यह शब्द अशुद्ध है। अगर किसी अर्वाचीन भाषान्तरकार ने स्वीकार भी किया हो तो भूल ही मानी जायगी। सूत्रों तथा प्राचीन प्रत्याख्यान सम्बन्धी प्रकरणों में सर्वत्र "बहलेण" यह ही पाठ दृष्टिगोचर होता है। भाषा में “साढं" प्रयोग नहीं हो सकता; "" के द्वित्व वाला "साड्ढ" यह प्रयोग भूल भरा है। प्राकृत में 'सव' यह प्रयोग ही शुद्ध है। प्राकृत में "पच्छन्न" शब्द लिखने की कुछ भी जरूरत नहीं होती। संस्कृत भाषा में ह्रस्व के आगे 'छ' को द्वित्व 'च्छ' करने की जरूरत होती है, प्राकृत में नहीं। नं० ५० भूल की गांधी ने चर्चा नहीं की, इससे मालूम होता है कि वह इनको मंजूर है। मं० ५२ की भूल श्री गाँधी ने स्वीकार करली है, इससे इसके सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा। नं० ५३ की भूल पाणहार' को गांधी प्रवाहपतित मानकर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org