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निबन्ध-निचय
का उत्तर दिया। "विवाह-चूलिया" में चैत्य मानने वाले तथा उपधानादि तपोविधान कराने वाले साधुओं का खण्डन किया है। "विवाहचूलिया" हिन्दी भाषान्तर के साथ छपकर प्रकाशित हुए कोई पचास वर्ष हुए होंगे, फिर भी स्थानकवासी जनों ने इसका सार्वत्रिक प्रचार नहीं किया, पर इनके घरों तथा पुस्तकालयों तक ही “विवाह-चूलिया' पहुंची है। यही कारण है कि हमारे सम्प्रदाय के विद्वानों तथा लेखकों को उक्त चूलिका प्राप्त न हो सकी।
(१०) धर्म-परीक्षा :
"धर्म-परीक्षा” नामक दो ग्रन्थ हमने पढ़े हैं, जो पौराणिक बातों के खण्डन में लिखे गए हैं। पहली “धर्म-परीक्षा" के लेखक हैं दिगम्बराचार्य "अमितगति" जो विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी के प्रसिद्ध विद्वान् थे । अब रही दूसरी “धर्मपरीक्षा", इसके कर्ता प्रसिद्ध उपाध्याय धर्मसागरजी के शिष्य श्री पद्मसागर गणी थे। श्री अमितगति को "धर्म-परीक्षा" का परिमाण १४०० श्लोक के आसपास है, तब पद्मसागरीय "धर्म-परीक्षा' का श्लोक परिमारण १२०० के आसपास है। दोनों ग्रन्थ संस्कृत भाषा में हैं। हमने दोनों "धर्म-परीक्षाएँ" पढ़ी हैं और सावधानी से अन्वेषण करने पर मालूम हुआ है कि पद्मसागर गरणी की "धर्म-परीक्षा'' अमितगति आचार्य की "धर्म-परीक्षा' का ही संक्षिप्त रूप है। आदि अन्त के तथा ग्रन्थ भर में से भिन्न-भिन्न श्लोकों को निकाल कर गणीजी ने अमितगति प्राचार्य की कृति को ही अपने नाम पर चढ़ा दिया है। इतना करने पर भी वे इस कृति का दिगम्बरीयत्त्व नहीं मिटा सके, यह आश्चर्य की बात है। पाँच पाण्डवों की द्विविध-गति, जिनदेव के निवृत्त अष्टादश दोषों में "क्षुद् अभाव" रूप दोष आदि दिगम्बर सम्प्रदाय सम्मत अनेक बातें अाज भी इस पद्मसागर की कृत्रिम कृति में दृष्टिगोचर होती हैं।' इस प्रकार पद्मसागरजी ने "पस्य काव्यं स्वमिति ब्रुवारणो विज्ञायते ज्ञैरिह काव्यचौरः" इस साहित्यिक उक्ति के अनुसार साहित्यिक चौर्य का अपराध किया है, इसमें कोई शंका नहीं।
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