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निबन्ध-निचय
उसके स्थान पर वर्तमान "अास्रवसंवरात्मक" विषय को कायम करके दसवें अंग का अस्तित्व कायम रखा।"
संस्कृत-टीकाकार आचार्य श्री अभयदेव सूरिजी भी उक्त बात का ही संकेत करते हैं। इससे इतना जाना जा सकता है कि "प्रश्नविद्यामय" प्रश्न-व्याकरण सूत्र नष्ट नहीं हुअा, किन्तु गीतार्थ प्राचार्यों ने इसका विषय बदल दिया है, जिससे कि भविष्य काल में इससे कोई हानि न होने पावे ।
(८) गच्छाचार-पइन्नय :
विक्रम की चौदहवीं अथवा पन्द्रहवीं शताब्दी में किसी सुविहित प्राचार्य ने महानिशीथ, कल्प भाष्य, व्यवहार भाष्य आदि की गाथाओं का संग्रह करके “गच्छाचार पयन्ना" नामक पइन्नय का सर्जन किया है। इस पइन्नय का निर्माण उस समय के प्राचीन गच्छों में चलते हुए शिथिलाचार और अनागमिकता का खण्डन करना है। इसमें संग्रहीत भाष्यों की गाथायों के सम्बन्ध में तो कुछ कहना नहीं है, परन्तु 'महानिशीथ" से उद्धृत गाथानों को अधिकांश वर्णन अतिरंजित है। कई बातें तो आगमोत्तीर्ण भी दृष्टिगोचर होती हैं। यह सब होते हुए भी यह "पइन्नय" तत्कालीन साधुओं में शैथिल्य किस हद तक पहुंच गया था, इस बात को जानने के लिए एक उपयुक्त साधन है ।
तपागच्छ के आचार्य श्री हेमविमल सूरिजी के शिष्य विजयविमल ने जो 'वानषि" नाम से भी प्रसिद्ध थे, “गच्छाचार पयन्ना" पर एक साधारण टीका बनाई है, इससे भी ज्ञात होता है कि “गच्छाचार पइन्नय" विक्रम की १४वीं १५वीं शती के लगभग की कृति होनी चाहिए, पहले की नहीं।
(६) विवाह-चूलिया :
मूर्ति मानने वाले विद्वानों ने मूर्ति नहीं मानने वाले लुकागच्छ के साधुओं के विरुद्ध "वंग-चूलिया” अध्ययन की रचना की, तब किसी स्थानकवासी साधु ने “विवाह-चूलिया" का निर्माण कर "वंग-चूलिया"
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