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________________ प्रस्तावना। . राजेन्द्रमरिजी के परिवार वालों से आज तक मैने लेखों द्वारा चर्चा नहीं की, और न उन की गंभीर भूलों और अनुचित कार्यों का प्रकाश किया, तथापि वे लोग मेरे ऊपर विना ही कारण इस प्रकार क्रूरता जाहिर करते हैं, तो अब मुझे भी इन की तर्फ नज़र करनी ही चाहिये। यद्यपि मेरे इस विचार को कई विद्वान् लोगों की तर्फ से अनुमोदन मिल गया था, तथापि मैंने सोचा कि शायद लेखकों की बेदरकारी से ही यह भूल हो गई हो, और अब भी वे इसे सुधार लेवे तो उन्हें प्रथम सूचना कर देनी चाहिये, क्यों कि इतने से ही अगर इस चर्चा का अंत आ जाय तो अच्छी बात है। पाठकमहाशय समझ सकते हैं कि यह मेरा विचार सिर्फ विरोध को दबाने के लिये था न कि दूसरे किसी मतलब के लिए। जब उपर्युक्त मेरा विचार सब को विशेष रुचिकर हो गया तो मैने उक्त पुस्तक के लेखक मुनिश्री हर्षविजयजी और तीर्थविजयजी को नीचे मुजिब नोटीस दी, जालोर. ता. ८-९-१९१५. मुनिश्री हर्षविजयजी तथा तीर्थविजयजी. बमुकाम-कानदर. __ इस नोटीस से मालूम हो कि 'तिर्थ कोरटाजी के अनुचित लेख का-समुचित उत्तर दान पत्र' नामक आप की बनाई हुई किताब मेरे देखने में आई है जिस की भाषा सर्वथा असभ्यता पूर्ण है, उस के अंदर जैनभिक्षु' नामक लेखक के लेख का उत्तर देने की चेष्टा की गई है । अस्तु । बमका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003120
Book TitleTristutik Mat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherLakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara
Publication Year1917
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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