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सकते हैं कि ये लोग शान्ति को चाहने वाले हैं ? यह तो इस वाली बात हुई कि ' चोर कोटवाल को डांटे ।'
इन की इस कारवाई को देख के मैने यही निश्चय कर . लिया कि ये लोग सुलह को चाहते ही नहीं है । खैर । इन की मर्जी !।
शायद यहां पर मुझे कोई प्रश्न करेगा कि उन्होंने न माना तो तुम्ही सवर कर लेते ! क्यों कि सहन करे सो ही बडा, तो मुझे कहना पडेगा कि यह आपका उपदेश इस विषय में उचित नहीं जान पडता, भला यह भी कभी हो सकता है कि गुरु और धर्म जैसे सर्वोत्तम तत्व पर होते हुए झूठे आक्षेपों को सुन के भी कोई उपेक्षा कर के पड़ा रहे ?, मेरी समझ में तो ऐसा करना मानों सत्य के गले छुरी चलाना है।
हां, यह बात सही है कि लेखक को असत्य से हमेशा दर रहना चाहिये, यहां तक कि बन सके वहां तक अपना लेख प्रमाण के साथ ही लिखना चाहिये । सिर्फ वितंडावाद करके अपनी ठाँग ऊपर रखने की कोशिश करना मानो अपने मुखसे अपना पराजय कबूल करना है ।। __मैने इस मीमांसा में अपने इस उपदेश पर कहां तक पाबंदी रक्खी है इस का निर्णय पाठक महाशय खुद कर लेंगे, क्यों कि मेरा इस विषय में अधिक लिखना आत्मश्वाघा का कारण हो जाता है । तथापि इतनी सूचना करूंगा तो कुछ भी अनुचित नहीं होगा कि जहां तक बन पडा है मैने इस लेख को प्रमाण पूर्वक ही लिखा है।
कीर्तिचंद्रजी की दीक्षा की हकीकत, रत्नविजयजी श्रीपूज्य
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