________________
११८
त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
हुई, तथापि वह सर्वथा निष्फल भी नहीं गई । आखिर में उस पवित्र भावना का वीज आपने अपने विनीतशिष्य मुनिवर्य श्रीकेशरविजयजी के हृदय में रोपा जो कालान्तर में श्रीमत्पंन्याससिद्धिविजय जी गणि की कृपा से अंकुरित हुआ।
लेखक जी! अव तो आप स्पष्ट जान सकते हैं कि हमारे गुरुमहाराज ने जो क्रियोद्धार किया है वह सिर्फ त्रिस्तुतिक मत के संस्कारो को घोडालने के लिये किया है, या यह कहना चाहिये कि उन्होंने मर्यादा हीन त्रिस्तुतिक मत की कल्पित मर्यादा को जलांजलि देकर सनातन मर्यादा और गुरुपरंपरा में प्रवेश किया है दूसरा कुछ भी नही किया। तो अब तुम्हारा पूर्वोक्त सारा ही लेख असत्य ठहरा या नहीं ?। फिर लेखक कहते हैं कि
जैन धर्म का असली सनातन राम्ता देखने वाले राजेन्द्रसूरि जी के तो जैनधर्म की पुष्टि के लिए दलीले शास्त्रयुक्त हुआ करती थी, और उन के परिवार के साधुओं की भी यही दशा है " ।
लेखक जी ! तुम्हारे राजेन्द्रमूरि जी जैनमार्ग के कैसे अनजान थे इस बात का तो मैने पहले ही विवेचन कर दिया है । उन्होंने अपने मत की पुष्टि के लिये कैसी २ शास्त्रविरुद्ध मन:कल्पित युक्तियां चलाई हैं फक्त उन्हीं के कुछ दृष्टान्त बतलाना उचित समझता हूं।
राजेन्द्रमूरिजी के खुद के लिखे हुए · चैत्यवंदनविचार' के पत्र मेरे पास हैं, उन में एक जगह वे लिखते हैं
" ललीतविस्तरा चैत्यवंदन की टिका ९६२ की साल में हरीभद्रसूरी भये तिनो ने बनाइ तामें लिखते हे-' उपचितपुन्यसभारा'
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org