________________
त्रिस्तुतिक- मत --मीमांसा ।
......................
..........................wr
में किसी प्रकार लज्जा नहीं आई, वे उन महोपकारी गुरु को जींदगी के छेडे तक गुरु ही मानते थे, तथापि क्रियोद्धार कर के उपसंपर धारण की इस का कारण दूसरा है, तुम कहते हो वह नहीं ।
कीर्तिचंद्रजी भवभीरु पुरुष थे । उन्हों ने तीन थुई के मत को शास्त्रविरुद्ध समझते ही उसे छोड देने का उद्योग किया और आखिर छोडा।
मेरी ही क्या, सारे संसार की समझ में यह काम बड़ा उत्कृष्ट समझा जाता है । चिरकाल से पकडी हुई अपनी असत्य बात को छोड देना लड़कों का खेल नहीं है । संसार के भय विना ऐसा होना कठिन कार्य है । ऐसा कठिन कार्य भी उन्हों ने कर लिया तो भी अभीतक वे अपना एक कार्य बाकी समझते थे । वे अच्छी तरह जानते थे कि चाहे जैसी भी उत्कृष्ट धर्मक्रिया वीतराग की आज्ञा मुजिब करने से ही संपूर्ण फल देती है। यदि ऐसा न होता तो ' जमाली ' कदापि किल्बिषिया देवों की योनि में नहीं जाता । इस लिये जैसे चतुर्थस्तुतिको शास्त्रसम्मत जान के मैने स्वीकार की, वैसे ही देशकाल के अनुसार संयमपालने वाले वीतराग की आज्ञानुसार मूत्रपञ्चाङ्गीस्वीकृत चार स्तुति के मत को पालने वाले किसी संयमी मुनि का योग मिले तो उन के पास कियोद्धार भी कर लूं । परंतु भावि प्रबल है, इस अभिलाषा की सिद्धि होते पहले ही उन महात्मा ने इस क्षणिक मनुष्य देह का त्याग कर के दिव्य देह का स्वीकार कर लिया-वे देवलोक सिधार गये।
यह खेद का विषय है कि उन की उक्त धारणा सिद्ध नहीं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org