________________
त्रिस्तुतिक- मत- मीमांसा ।
११५
राजेन्द्रमूरिजी, प्रमोदरुचिजी और जयविजयजी-इन्हों ने आहोर में।
इसी चौमासे में श्रावण सुदि १५ पूर्णिमा के दिन बडी धूम-धाम के साथ, आठ दश गांवों के लोगों के समक्ष धनराजजी को राजेन्द्रमूरिजी ने खुद ने दीक्षा दी और 'धर्मविजय' नाम रक्खा ।
उसी रोज दूसरे भी दो आदमियों ने धनराजजी के साथ दीक्षा ली थी जिन के नाम ' उदयविजय ' और 'सुखविजय' रक्खे थे।
बाद संवत् १९३५ के जेठ सुदि २ और शुक्रवार के दिन शहर जालोर में राजेन्द्रमूरिजी ने संघसमक्ष 'धर्मविजय' जी को बडी दीक्षा दी और पहले के नाम को बदल के 'कीर्तिचन्द्र ' नाम दिया।
इस मौके पर भी राजेन्द्रमूरिजी का परिवार-धनविजयजी, मोहनविजयजी, ऋद्धिविजयजी, तीकमविजयजी, तथा साध्वी लक्ष्मीश्री विद्याश्री, अमृतश्री, ज्ञानश्री विगैरह-वहां मौजुद था। ___ पाठकगण ! इस लंबे चौड़े इतिहास ने आप का बहुत समय लिया-यह मैं कबूल करूंगा, पर यह भी कहना जरूरी होगा कि यह इतिहास निरर्थक नहीं है, इस के इतने विस्तार विना आप यह कैसे जान सकते थे कि लेखक महाशय बार २ अपना भीतरी द्वेष किस के ऊपर निकालते हैं ?, वे अपनी सज्जनता ( ? ) को जाहिरात में लाते हुए · अंध-शब्द' का प्रयोग किस के लिये करते हैं ? । अपनी असत्यता और मिथ्यावाद का साक्षी
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org