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________________ ११४ त्रिस्तुतिक-मत--मीमांसा । भी अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिये अपने मा-चापों से दीक्षा लेने की आज्ञा मांगने लगे। पर यह काम सहज नहीं था, चाहे जैसा भी पुत्र ! पुत्र का वियोग ! मोहग्रस्त संसारियों के लिये यह एक असह्य घटना है। इस घटना को सर्व साधारण कह कर के धनराजजी ने अपने माता-पिता को बहुत कुछ समजाया लेकिन निराशा के सिवा और कुछ फल नहीं पाया । ___ इतना होने पर भी वे भग्नमनोरथ-निराश नहीं हुए । सर्व विघ्नों-अन्तरायों का नाश करने वाले पवित्र आयंबिल तप को अब वे करने लगे, इसी को उन्होंने अपना अन्तिम और अमोघ शस्त्र समझा। तपस्या सचमुच ही अद्भुतप्रभाव वाली सिद्ध क्रिया है । " तपो हि दुरतिक्रमम् ” यह शास्त्रीय ही नहीं बल्के अनुभव सिद्ध वचन है-ऐसा कहना चाहिये । धनराजजी को इस का अनुभव अच्छी तरह हो चुका था। वे ज्यों ज्यों पूर्वोक्त तप करने लगे त्यों त्यों उन की दीक्षा में अंतराय करने वालों के परिणाम बदलने लगे। वे अपनी मोहभरी भूल को प्रत्यक्ष देखने लगे । 'धर्मकार्य में विघ्न डालना दृढधर्मीपन का लक्षण नहीं ' यह बोध उन के हृदय में प्रकाशमान हुआ। आखिर विचार बदला और दीक्षा की अनुमति दे कर साठ आयंबिलों की पारणा करवाई। तलावत धनराजजी की दीक्षा। विक्रम संवत् १९३१ की साल का वर्षाचतुर्मास धनविजयजी और रामविजयजी ने तो जालोर-मारवाड़ में किया और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003120
Book TitleTristutik Mat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherLakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara
Publication Year1917
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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