________________
११२
त्रिस्तुतिक-मत-मीमांसा ।
थे-यह भी एक दाक्षिण्य का कारग था और आखिर प्रार्थना भी बेदाम की थी इस वास्ते आपने रत्नविजयजी को पूर्वोक्त प्रमाण पत्र लिख दिया। ___ यह सब हो जाने पर रत्नविजयजी ने वहां से निकलने का इरादा किया, खर्ची कम होने से रुपया एक सौ १००) शेठ टीकमजी के और एक सौ १००) लखमाजी रुपाजी के पास से लिये यह कह कर के कि वंदाने में मिलेंगे तब तुम्हें वापिस दे देंगे । रुपया ५८॥7) अठावन और तेरा आने तलावत धनराजजी की मारफत श्राविकाओं से ओर भी मिले । यह सब सामान ले कर रत्नविजयजीने आहोर से अजमेर की तर्फ विहार किया, उस वक्त निम्न लिखित यति विगैरह उन के साथ में थे
१ धनविजयजी, २ खूबविजयजी, ३ लालविजयजी, ४ हमीरविजयनी,
५-६ दो गृहस्थ चेले और ७ एक ब्राह्मण, ___ अजमेर में मियाना ( पालखी ) खरीद किया और वंदाते २ संभूगढ ' पहुंचे । वहां पर 'हेमसागर' जी यति से मिलना हुआ और श्रीपूज्य जी के साथ चली हुई खटपट की बात चीतें हुई।
उस वक्त हेमसागरजी भी उसी कारण से श्रीपूज्य जी से नाराज थे जिस से कि आहोर के श्रावक । इस लिये उन्हों ने भी रत्नविजयजी की खटपट में सहायता दी । इतना ही नहीं, बल्के वहीं (शंभुगढ में) उत्सव कर के रत्नविजयजी को पाठ वियया और ' राजेन्द्रमूरि' जी नाम स्थापन किया ।
पाठकगण ! ध्यान रखिये, अब आप का परिचित नाम
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org