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________________ त्रिस्तुतिक मत-मीमासा । श्रीपूज्यजी के आपस में तकरार हो गई है सो तो तुम जानते ही हो इस हालत में श्रीपूज्य के कब्जे में रहे हुए मेरे सामान को कैसे छुडावें । क्यों कि इस वक्त मेरे ३००) तीन सौ रुपया तो नकद श्रीपूज्यजी से लेने हैं । मेरे एक चेले का गहना मयपेटी के, और भगवती, पन्नवणा आदि सूत्रों की प्रतियों से भरी हुई एक बडी मंजूस भी उन्हीं के पास पडी है । सिवा इस के दो वर्ष का मेरा पगार भी उन में लेना बाकी है । इस प्रकार मेरी मिल्कत को श्रीपूज्यजी दवा बैठे हैं, तो इसे मंगवाने के लिये क्या उपाय करें ? । यह विचार रत्नविजयजी और श्रावकों के आपस में कुछ समय तक होने के बाद यह निश्चय हुआ कि ' आहोर' के ठाकुर साहब को इस के लिये अर्ज की जाय, आखिर पर यही हुआ । ____ आहोर के ठाकुर साहब बड़े ही भद्रपुरुष थे, उपाध्याय सुरेन्द्रसागरजी के साथ गाढ परिचय होने के कारण साधु-यतियों को और भी अधिक मान देते थे। आपने रत्नविजयजी और आहोर के श्रावकों की अर्ज स्वीकार की और राज-सिरोही से लिखा-पढी कर के श्रीपूज्यजी से रत्नविजयजी का माल छुडवाया । वह माल गांव 'शिवगंज ' में रत्नविजयजी को मिला, जिस में नकद रुपया, चेले का गहना और ३ तीन पुस्तकें नहीं थीं। श्रीपूज्य और रत्नविजयजी के परस्पर फारखती हुई और जो २ चीजें वाकी थीं ( नहीं मिली थीं ) वह फारखती में वकात लिखी गई। बाद रत्नविजयजी वापिस आहोर आये । यह पहले ही कहा जा चुका है कि आहोर के तपागच्छीय सिरोही राज्यसे लिखापढ़ी करने का कारण यह है कि उस वक्त श्रीपूज्य सिरोही गये हुए थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003120
Book TitleTristutik Mat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherLakshmichandra Amichandra Porwal Gudabalotara
Publication Year1917
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size7 MB
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