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त्रिस्तुतिक-मत - मीमासा ।
के विषय में योग्य उपाय लेना ही चाहिये ।
बस मुझे निरुपाय हो कर यह विचार निश्चित करना पड़ा कि अब तो इस पुस्तक का योग्य उत्तर देना ही न्याय की बात है। उक्त विचारानुसार मैने जालोर में ही उस पुस्तक के उत्तर में इस 64 त्रिस्तुतिक मत - मीमांसा " पुस्तक को लिखना शुरू किया, और करीब डेढ़ महीने के अंदर लगभग पूरा कर दिया ।
बाद संवत् १९७२ के माघ कृष्ण त्रयोदशी के दिन हम जालोर से विहार कर के तीसरे दिन यानी अमावास्या के दिन गांव वाघरे पहुंचे, उस वक्त प्रतिष्ठा का मौका होने से धनविजयजी, मोहनविजयजी, हर्ष - तीर्थ विजयजी विगैरह बहुत से तीन थुई के साधु वहां पर आये हुए थे, हम उन के पास जाकर मिले, और कुछ समय तक मामूली बातें चीतें कीं, बाद तीर्थविजयजी एकाएक बोल उठे कि ' झगडा नहीं करना चाहिये ' मैने कहा- अच्छी बात है, झगडा कभी नहीं करना चाहिये, पर सिर्फ यह कहने से ही फायदा नहीं होता कि ' झगडा नहीं करना चाहिये,' इस पर अमल भी होना चाहिये, वस्तुतः मुख से कोई भी बात कहनी कठिन नहीं है, पर उस मुजब वर्तन रखना बड़ा कठिन है । तीर्थविजयजी - हमने तो बहुत दिन तक इस मुजब वर्तन किया पर क्या करें ? लोग जब हमारे पीछे ही पड़ गये तब तो हम भी कितना सहन करें ? चंदन स्वभाव से शीतल है पर पत्थर के साथ घिसाने से उस में भी अग्नि पैदा हो जाता है । यह बात नहीं है - मैं यह नहीं कहता कि लोग तुम्हारे विषय में चाहे ज्यों लिखा करें और तुम
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मैं
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