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ऊपर लिखे तीन अवतरणों में से पहले में अन्नोत्पत्ति का क्रम बता कर अन्त में प्राण का आधार अन्न बनाया है, और अन्न का आधार भूमि ।
द्वितीय अवतरण में काबन्धि नामक अनूचान को उसकी माँ ने अपने निवास को छोड़ कर उदीच्य देशों में चलने की प्रेरणा की और कुरु, पाञ्चाल, अङ्ग, मगध, काशी, कोशल, शाल्व, मत्स्य शिवि, उशीनर, आदि भारत के उत्तरीय देशों में सभी लोग अन्न भांजी हैं, इसलिये हम वहां चले जायें । काबन्धि के इस वृत्तान्त से यह सिद्ध होता है, कि गोपथ ब्राह्मण के निर्माणकाल में उत्तर भारत की प्रजा केवल अन्न भोजी थी। वहां पर मांस मच्छी खाने वाला कोई नहीं था ।
गोपथब्राह्मण के तृतीय अवतरण में पुत्र कामा अदिति के यज्ञार्थ प्रदन पकाने तथा यज्ञशेष पुरोडाश खाने से आदित्यों का जन्म होने का कथन है । इसमें भी गोपथब्राह्मण के समय में अन्न ही से देवताओं का यजन किया जाता था, पशुबलि की प्रथा नहीं थी ।
"अन्नं वै सर्वेषां भूतानामात्मा तेनैवेतच्छ्रमयाञ्चकार प्राशित्र मनुमन्त्रयते "
उ० भा० १ प्रपा० ० ७८
"याज्यया यजति, अन्नं वै याज्या, अन्नाद्यमेवास्य तत्कल्पयति, मूलं वा एतद् यज्ञस्य यद्वायाच याज्याश्च" ॥ २२ ॥
२० भाग० प्रपा पृ० ११५
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