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ऋक संहिता में धान्य शब्द का उल्लेख“यस्ते सूनो सहसो गीभिरुक्थै यज्ञैर्मयो निशितं वैद्यानट विश्वस देव प्रतिवार मन धत्ते धान्यं प्यते व सव्य ।।
(ऋक् संहिता ६।१३४ ) अर्थात्-हे वलके पुत्र तुम्हारा क्षीणता जो मर्त्य (मनुष्य) स्तुति और यज्ञ द्वारा वेदी (यज्ञभूमि पर पाते हैं) हे द्योतमान ! अग्नि ! वे समस्त धान्य प्रतिधारण करते और धन सम्पन्न होते है।
कृष्ण यजुर्वेद में शुक्ल और कृष्ण दो प्रकार के ब्रीहि का का उल्लेख है यथा'नीहीनाहरेछुचिकृष्णांच"
( तैत्तरीयसंहिता ।।३।१३। ) अथान्-शुक्ल और कृष्णा दो प्रकार के ब्रीहि को इकट्ठा करो।
ब्रीहि शब्द का उल्लेख अथर्ववेद के पूर्ववर्ती तैत्तरीय और वाजसनेय संहिता में मिलता है । यथा---
यवं प्रीष्मायौषधीवर्षाभ्यो । ब्रीहीन शरदे माषतिलौ हेमन्त शिशिराभ्याम"
(तैत्तरीय संहिता जा२१०।२) ब्रीहिश्च मे यवाश्च मे माषाश्च मे यक्षेन कल्पन्ताम्" ।
( वाजसनेय संहिता १८।१२। ) अर्थात-ग्रीष्म ऋतु से यव जाति के धान्यों का, वर्षा से
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