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अमुक मात्रा में पानी डाल कर औषधियां डालो और आग पर रक्खो। जब वे पक कर तैयार हो जाय तब उन्हें खाया करो। उन भद्र मनुष्यों ने कुलकर की आज्ञा के अनुसार वैसा ही किया, और इस प्रकार भोजन पका कर ग्वाने की प्रवृत्ति चलाई ।
इस प्रकार अवसर्पिणी समा के तृतीयारक के अन्त में कुम्भ कार कोशिल्य प्रकट हुआ । इसी प्रकार लोहकार चित्रकार वस्त्रकार और बाल बनाने वालों के शिल्प भी अस्तित्व में आये। इन पांच शिल्पों में से प्रत्येक के बीस बीस भेद होकर कुल सौ शिल्प प्रसिद्ध हुए। परन्तु तब तक जनता में अनीति का बीजा रोपण तक नहीं था, अतः दण्ड नीति आदि राज्य विधान साधन मात्र था उसका प्रयोग प्रायः नहीं होता था। उस समय के मनुष्य मुवी सन्तोषी और भद्र परिणामी थे, वे वनस्पति का आहार
और नदी-झरनों के पानी पीकर अपना जीवन-निर्वाह करते थे। उनमें घृत, मांस,-भक्षण, मदिरा-पान, वेश्यागमन, आखेटक करने की आदत, चोरी अथवा पर स्त्री गमन आदि कोई दुर्व्यसन नहीं था, दिन प्रतिदिन मानव समाज सभ्यता में आगे बढरहा था।
भगवान् ऋषभदेव के संसार-त्याग के उपरान्त उनके बड़े पुत्र भरत भारतवर्ष के राजा हुए, उन्होंने राज्य की व्यवस्था के लिये चतुरङ्ग सैन्य का संग्रह किया, स्थान-स्थान पर नगरनिवेश करवा कर मनुष्यों को बसतियों में बांट दिया,जो कुछ उनके लिये जरूरी साधनों की कमी थी वह पूरी की, बे चक्रवर्ती
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