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राजा बने, मानव- गण को व्यवस्थित रखने के लिए राज नीति का निर्माण हुआ।
भरत चक्रवर्ती की माहणशाला भगवान ऋषभदेव प्रव्रज्या लकर देश भ्रमण करते और तपस्या करते हुए केवलज्ञानी हुए । कालान्तर में वे भरत की राजधानी विनीता से कुछ योजनों की दूरी पर रहे हुए अष्टापद पर्वत पर पधारे। भरत को उनके आगमन की पर्वत-पाल ने बधाई दी। भरत बड़े विस्तार के साथ उनको बन्दन करने गया, माथ में गाडियों-बन्द पका-पकाया भोजन भी ले गया था, इस विचार से कि इसका भगवान के मुनिगण को दान करेंगे। बन्दन धर्म श्रवण के उपरान्त भरत ने मुनिगण को निमन्त्रण दिया कि निर्दोष आहार तैयार है, कृपा कर उसे ग्रहण कीजिए । भगवान् ने "राज पिण्ड अकल्प्य है" कह कर भरत की प्रार्थना को अस्वीकृत कर दिया । भरत बहुत निराश हुए, इस पर इन्द्र ने कहा राजेन्द्र ! निर्ग्रन्थ श्रमण अभिषिक्त राजा के घर से भोजन वस्त्र आदि पदार्थों को ग्रहण नहीं करते। तुम अपने भारतवर्ष भर में श्रमणों को अबग्रहदान देकर लाभ ले सकते हो । इस पर से भरत ने अपने अधिकार के भू भाग में विचरने-रहने की
आज्ञा दे दी, और इन्द्र से पूछा कि लाये हुए इस भोजन की क्या व्यवस्था की जाय । इन्द्र ने कहा, यह अन्न साधर्मिक गृहस्थ श्रावकों को जिमाइये और भक्ति का लाभ लीजिये | भरत ने वैसा
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