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क्रोधादि कषाय-विष से विवेक-हीन बनते जायेंगे, प्रबल जल प्रवाह के आगे जैसे गढ़ छिन्न-भिन्न हो जाता है, वैसे ही स्वच्छन्द लोक प्रवाह के आगे हितकर मर्यादायें छिन्न-भिन्न हो जायेंगी । ज्यो-ज्यों समय बीतता जायगा जन-समाज दया. दान, सत्य-हीन और कुतीर्थिकों से मोहित होकर अधिकाधिक अधर्मशील होता जायगा ।
उस समय ग्राम श्मशान- तुल्य, नगर प्रेत- लोक-सदृश, भद्रजन दास - समान और राजा लोग यमदण्ड समान होंगे । लोभी राजा अपने सेवकों को पकड़ेगे और सेवक नागरिकों को । इस प्रकार मत्स्यों की तरह दुर्बल सबलों से सताये जायेंगे । जो अन्त में हैं, वे मध्य में और मध्य में हैं, वे अन्त में प्रत्यन्त होंगे। बिना पतवार के नाव की तरह देश डोलते रहेंगे। चोर धन लूटेंगे । राजा करों से राष्ट्रों को उत्पीड़ित करेंगे और न्यायाधिकारी रिश्वतखोरी में तत्पर रहेंगे । जन समाज स्वजन-विरोधी स्वार्थीप्रिय, परोपकार - निरपेक्ष, और आविचारित भाषी होगा । बहुधा उनके वचन असार होंगे। मनुष्यों की धन-धान्य-विषयक तृष्णा कभी शान्त नहीं होगी। वे संसार-निमग्न, दाक्षण्य-हीन, निर्लज्ज और धर्म-श्रवण में प्रमादी होंगे ।
दुष्षमा काल के शिष्य गुरुओं की सेवा नहीं करेंगे, और गुरु-शिष्यों को शास्त्र का शिक्षण नहीं देंगे । गुरुकुल वास की मर्यादा उठ जायगी । लोगों की बुद्धि धर्म में शिथिल हो जायगी । देव पृथिवी पर दृष्टिगोचर नहीं होंगे । पुत्र माता-पिता की
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