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( ४०६ ) दन कहते हैं:त्रिंशत् परां त्रिंशदवगं, स्त्रिंशच परतः परन् । सद्यः संन्यासनादेव, नरकात् तारयेत् पितृन् । अर्थः- संन्यास लेने से पुरुष अपने के पहले के तीस कुलों और पाछे के तीस कुलों के, और उनके पीछे के तीस कुलों के पितरों को नरक से तारता है।
जाबाल कहते हैं :चतुर्वेदस्तु यो विप्रः, सोमयाजी शतक्रतुः । तस्मादपि यतिः श्रेष्ठ-स्तिलपर्वतमन्तरम् ॥
अर्थः-चतुर्वेदी सोमयाजी, और यज्ञ करने वाले ब्राह्मण से भी यति श्रेष्ठ है इन दो का अन्तर तिल पर्वत के समान है।
इस विषय में अङ्गिरा का वचन निम्न प्रकार का है:मूर्यखद्योतयोर्यद्वन्मरुसर्पपयोरपि ।। अन्तरं हि महद् दृष्टं, तथा भिनु गृहस्थयोः ॥ अर्थः- सूर्य और जुगनू में जितना अन्तर है, मेरु तथा सर्पप में जितना अन्तर है, उतना महान् अन्तर भिक्षु तथा गृहस्थ में देखा गया है।
अत्रि कहते हैं:ब्रह्मचारीसहस्रच, वानप्रस्थशतानि च । ब्राह्मणानां हि कोट्यस्तु, यतिरेको विशिष्यते ।।
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