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भिक्षा पंच विधा घेता, सोमपान समाः स्मृताः । तासामेकत मयाऽपि वर्त्तयन् सिद्धिमाप्नुयात् ॥
अर्थ - यह पांच प्रकार की भिक्षा यज्ञ में सोमपान की तरह उपादेय है, इनमें से किसी भी एक भिक्षा से अपनी जीविका चलाता हुआ भिक्षु सिद्धि प्राप्त करता है ।
हेय भिक्षान्न
ऋतु कहते हैं—
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एकानं मधुमासञ्च, अनं विष्ठादि दूषितम् । हन्तारं च नैवैद्य प्रत्यक्षं लवणं तथा ।। एतान् मुक्त्वा यति महात्, प्राजापत्यं समाचरेत् ।
पारशकर कहते हैं
२६२
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अर्थ - एक घर का अन्न, मधु मांस, विष्ठादि के सम्पर्क से दूषित अन्न बिना भाव से दिया हुआ अन्न, नैवेद्य और लवण मोह के वश इस प्रकार के भिक्षान्न का भोजन करके भिक्षुक प्राजापत्य प्रायश्चित करे ।
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ऋतु कहते हैं
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यतीनामातुराणां तु वृद्धानां दीर्घरोगिणाम् । एकान्नेन न दोषोऽस्ति, एकस्यैव दिने दिने ।
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अर्थ - बिमार, वृद्ध, लम्बी बिमारी वाले, यति को एकान्न ग्रहण करने में भी दोष नहीं है ।
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