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सुजीर्णोऽतिकृशो योगी, दशान्तो विकलेन्द्रियः । पुत्र-मित्र-गुरु-भ्रातृ-पत्नीभ्यो भैक्ष-माहरेत् ।।
अर्थ-अतिबृद्ध, अतिदुर्बल, अन्तिम दशा प्राप्त और विकलेन्द्रिय योगी, पुत्र, मित्र, गुरू, भाई, और पत्नी से भिक्षा ग्रहण करे। अत्रि कहते हैं
आयसेन तु पात्रेण, यदन्नमुपदीयते ।
भोक्ता विष्ठा समं अँक्ने, दाता च नरकं व्रजेत् ।। अर्थ-लोहे के पात्र से दिया गया अन्न खाने वाला विष्ठा खाता है, दाता नरक में जाता है। विष्णु कहते हैंभै यवागू तक्रं वा, पयो यावकमेव च । फलं मूलं विपक्वं वा, कणपिण्याकसक्तवः ।। इत्येते वै शुभाहारा, योगिनः सिद्धिकारकाः । त्वङ मूल पत्र पुष्पाणि, ग्राम्यारण्य फलानि च ।। कणयावक पिण्याक, शाक तक पयो दधि। भिक्षां सर्वरसोपेतां, हिंसावर्ज समाश्रन् ।
अर्थ-यवागू, छछ, दूध, यावक ( यवों से बना हुआ खाद्य पदार्थ) पका फल तथा मूल कण (सेका हुआ चणा आदि धान्य) पिण्याक (तिल्ली की खली ) सातू ये सब योगियों के लिये सिद्धि कारक शुभाहार कहे गये हैं।
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