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( ३६१ ) वाक्य से सिद्ध होता है कि पहले संन्यासी चारों वर्ण में भिक्षा ग्रहण करते थे।
भिक्षाकुल के सम्बन्ध में विश्वामित्र कहते हैं। मत्स्यमांसादि वहुलं, यत्गृहे पच्यते भृशम् । तद् गृहं वर्जयेद् भिनु, यदि भिक्षां समाचरेत् ।।
अर्थः-जिस घर में मत्स्य मांस आदि बार बार पकाया जाता हो उस घर को छोड़ कर भिक्षु भिक्षा ग्रहण करे ।
अत्रि कहते हैं :अनिन्द्य वै व्रजेद् गेहं, निन्द्य गेहं तु वर्जयेत् । अनावृते विशेद्वारि, गेहे नैवावृते व्रजेत् ॥ न वीक्षेद् द्वाररन्ध्रण, भिक्षां लिप्सुः क्वचिद् यतिः । न कुर्याद् व क्वचिद्, घोष न द्वारं ताड़येत् क्वचित् ।।
अर्थ-भिक्षाटन अनिन्द्य घरों में करना और निन्द्यघरों का त्याग करना, जिसका द्वार खुला हो उस घर में जाना बन्द घर में । द्वार खोल कर ) नहीं जाना, भिक्षार्थी भिक्षु द्वार रन्ध्र से न देखे, न आवाज दे, न द्वार को खट खटाये ।
अत्रि कहते हैंश्रोत्रियान्न न भिक्षेत्, श्रद्धा भक्ति-वहिष्कृतम् । व्रात्यस्यापि गृहे भिक्षेत्, श्रद्धाभक्ति पुरस्कृतम् ॥ अर्थ-श्रद्धा भक्ति रहित श्रोत्रिय का अन्न भी भिक्षा में न लें, और श्रद्धाभक्ति पूर्वक दिया जाने वाला ब्रात्य का अन्न भी ग्रहण किया जा सकता है।
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