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( ३७० ) काम क्रोधलोभमोहदम्भ दर्पाहङ्कारममकारानृतादी स्त्यजेत् । चतुर्पु वर्णेषु भैक्ष्यं चरेत् अभिशस्त पतितवर्जम् । पाणि पात्रेणाशनं कुर्यात् । औषधवत् प्राश्नीयात् प्राण संधारणार्थ यथामेदो वृद्धि न जायते । अरण्य निष्ठो भिक्षार्थी ग्राम प्रविशेत इति ।
अर्थः-परिव्राजक काम, क्रोध, लोभ, मोह, दम्भ, दर्प, अहङ्कार ममता, और असत्य आदि का त्याग करे। अभिशस्त ( मनुष्य घातक ) और पतित को छोड़ कर चारों वर्षों में भिक्षा वृत्ति करे । हाथों में भोजन करे शरीर निर्वाह का साधन औषध समझ कर विराग भाव से रूखा सूखा भोजन करे जिससे नेदवृद्धि न हो, अरण्य में रहे और भिक्षा के लिये ग्राम में प्रवेश करे ।
परिव्राजक शब्द की नामनिरुक्ति :परिवोधात् परिच्छेदात् , परिपूर्णावलोकनात् । परिपूर्णफलत्वाच्च, परिव्राजक उच्यते ॥
अर्थः-सर्वतो मुखी बोध होने से, परिच्छेद याने उपादेय का उपादान और हेय का त्याग करने से परिपूर्ण दृष्टि से देखने ने, परिपूर्ण फल साधक होने से वह परिव्राजक कहलाता है । यम कहते हैं:एकवासा प्रवासाश्च, एकदृष्टिरलोलुपः । दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं, वस्त्रपूतं जलं पिबेत् ।।
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