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( ३६६ ) ब्रह्मचर्याश्रम से सीधा संन्यासी होने का प्रतिपादन किया गया है। इससे संन्यास लेने वाले का आयुष्य विषयक संकेत भी मिल जाता है। उपनयन ब्रह्मचर्याश्रम प्रवेश का द्वार है,
और उपनीत होने का समय अष्टम वर्ष तक का माना है। इससे सिद्ध होता है कि संन्यास अष्टम वर्ष के ऊपर की किसी भी अवस्था में लिया जा सकता है ।
उक्त जाबालोपनिषद् तथा आरण्योपनिषद् आदि की श्रतियों के "व्रती वाऽवती वा स्नातको वाऽस्नातको वोत्सन्नाग्निको वा निरग्निको वा" इन शब्दों से यह भी प्रमाणित हो जाता है कि पूर्वकाल में अनाश्रमी भी संन्यास ले सकते थे, केवल ब्राह्मण के लिये ही संन्यास नियत नहीं था। परिव्राजक स्वरूप और उसका प्राचार धर्म जाबालोपनिषद् में परिव्राजक का स्वरूप इस प्रकार लिखा है
अथ परिवाड् विवर्णवासाः मुण्डोऽपरिग्रहः शुचिरद्रोही भैक्षाणो ब्रह्मभूयाय कल्पते । ____ अर्थः-अब परिव्राजक का स्वरूप बताते हैं। वह वर्णहीन वस्त्रधारी होता है, मुण्डित मस्तक, परिग्रह हीन पवित्र चित्र, अद्रोहशील और भिक्षावृत्ति करने वाला होता है, और वही ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त करने योज्य होता है।
अत्यन्तर में भी इस विषय में कहा गया है :
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