________________
( ३७१ )
सत्यपूतं वदेत् वाक्यं मनः पूतं समाचरेत् ।
9
प्रदूषयन् सतां मार्ग, ध्यानासक्तो महीं चरेत् ॥
अर्थ :- एक वस्त्र वाला अथवा वस्त्रहीन एक दृष्टिक और अलोलुप भाव से विचरता हुआ भिक्षु दृष्टि से भूमि को देख कर पैर रक्खे, वस्त्र से छान कर जल पिये, सत्य से पवित्र 'वचन बोले, मन से विचार कर शुभ काम को करे और महापुरुषों के मार्ग को दूषित न करता हुआ, ध्यान में लीन रहता हुआ पृथिवी पर भ्रमण करे |
व्यास कहते हैं
दशविधां हिंसां न कुर्यात् । उद्वेगजननं, सन्तापजननं, रुजा करणं, शोणितात्पादनं, पैशुन्यकरणं, सुखापनयनमतिक्रमः, संरोधो, निन्दा, बन्ध इति ।
अर्थ :- किसी को खेद उत्पन्न करना, सन्ताप उत्पन्न करना, रोग उत्पन्न करना, खून निकालना, चुगली करना, सुख को हटाना या टालना, रोकना, निन्दा करना और बान्धना ये दश प्रकार की हिंसा संन्यासी को न करना चाहिये ।
अत्रि कहते हैं :
श्रागच्छ गच्छ तिष्ठेति, स्वागतं सुहृदेऽपि च । सन्माननं न च ब्रया - मुनिर्मोक्षपरायणः ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org