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सबदुक्ख पहीणट्ठा, पक्कमन्ति महेसिणो ॥१३॥ दुकराई करित्ताणं, दुमहाई सहेत्तुय । केइत्थ देवलोयेसु, केइ सिझत्ति नीरया ॥१४॥ खवित्ता पुच कम्माई, संजमेण तवेण य । सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, ताइणो परिणिबुडेतिबेमि ॥१५॥
अर्थ-पञ्चास्रव परिज्ञाता (पांच प्रास्त्रवों को जिन्होंने छोड़ दिया है ) त्रिगुप्त ( मन बचन काय को गोपने वाले ) पट् संयम (षट् जीव निकायों का रक्षण करने वाले ) पंच निग्रहरण ( पांच इन्द्रियों का निग्रह करने वाले ) धीर ( धैर्यवान् ) निर्ग्रन्थ ( वाह्य
आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त) ऋजुदर्शी ( सब प्राणियों को सरल भाव से देखने वाले ) ऐसे निर्ग्रन्थ श्रमण ग्रीष्म ऋतुओं में सूर्य का ताप सहते हैं, शीत ऋतुओं में खुले शरीर और वर्षा ऋतुओं में मकानों अथवा गुफाओं में आश्रय लेकर संयम रखते हुए समाधि पूर्वक रहते हैं।
परिषह-रूप शत्रओं को दमन करने वाले, मोह को जीतने वाले और जो जितेन्द्रिय हैं, वे महर्षि सर्व दुःखों का क्षय करने के लिये पुरुषार्थ करते हैं । दुष्कर कामों को करके दुस्सह परिषहों को सह कर कई देव लोकों में उत्पन्न होते हैं । तब कई कर्म रूपी रजों को दूर करके सिद्धि को प्राप्त होते हैं, संयम और तपों द्वारा पूर्व भवोपार्जित कर्मों का क्षय कर सर्व जीवों के रक्षक कर्ममुक्त होकर मोक्ष मार्ग को प्राप्त हुए।
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