________________
( २३५ ) जैन श्रमणों की अोघ (सामाचारी) जैन श्रमणों के नित्य तथा नैमित्तिक आचार मार्गों में की जान बाली प्रवृत्ति को सामाचारी कहते हैं । यों तो अनेक विध समाचारियां हैं, यहां हम उन सामाचारियों का निरूपण करते हैं कि जो दिन में बार बार करने का प्रसंग आता है । इसी लिये इस सामाचारी को चक्रवाल सामाचारी कहते हैं । चक्रवाल सामाचारी नीचे लिखे मुजब दश प्रकार की होती हैंइच्छा१, मिच्छा२, तहकारो३, आवस्सियायठ, निसीहिया।
आपुच्छणाय६, पडिपुच्छा७, छंदणायम, निमंतणाह ॥४६॥ उव संपयाय १०, काले, सामाचारी भवे दस विहाउ । एमाइ साहु किच्च, कुज्जा समयाणु सारेणं ॥५०॥
अर्थ-इच्छाकार १, मिथ्याकार २. तथाकार ३, आवश्यकी ४ नैषेधिकी ५, आपृच्छा ६, प्रतिपृच्छा ७, छंदना ८, निमन्त्रणा ६, उपसम्पदा १०, यह दस प्रकार की सामाचारी होती है, यह सामाचारी रूपकृत्य, साधु को समय के अनुसार करना चाहिए ।
१ इच्छाकार जैन श्रमण को किसी भी काम में प्रवृत्ति कराने में उसकी इच्छा का अनुसरण किया जाता है । शिष्य तो क्या गुरु भी अपने शिष्य से कोई काम लेते समय उसे कहते हैं-"इच्छाकारेण ( इच्छया ) अमुक श्रमण" तुम अमुक कार्य करोगे इस पर उसके स्वीकार के रूप में शिष्य कहता है-"तथेति” ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org