________________
"बहु अट्टियं पुग्गलं, अणिमिसं वा वहुकंटयं । अच्छियं तिंदुयं विल्ल, उच्छृखंडव सिंबलिं ॥ ७३ ॥ अप्पे सिया भोअणञ्जाए, बहूउज्झिय धम्मियं । द्वितियं पडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ ७४ ।।
अर्थ-वहु गुठली वाला फल, तथा मेवों का सार भाग, तथा पिष्ट से बनाये गये सकंटक मत्स्य, अस्थिक वृक्ष, तिन्द वृक्ष और बिल्व वृक्ष के फल तथा गन्ने का टुकडा शिम्बा ( फली) इत्यादि भोजन जात जिसमें खाने योग्य पदार्थ कम होता है, और फेंकने योग्य अधिक उसको देती हुई गृह स्वामिनी को निषेध करे कि इस का खाद्य मुझे नहीं कल्पता ।
६-मडाइणं भंते निरंह निरुद्ध भवे निरुद्ध भयपयञ्च याव निहियट्टकरणिज्जे णो पुण रवि इत्थं तं हव्व मागच्छति हंता गोयमा ! मडाईणं नियं? जाव णो पुणरवि इत्थत्त हव्व मागच्छति सेणं भेते । किंतिवत्तव्वं सिया मुत्तति वत्तव्यं सिया पारग एत्ति वत्तव्वं सिया परंपरा गएत्ति वत्त० सिद्ध मुल परिनिव्वुडे अंत कडे सव्व दुकबप्प हीणेत्ति वत्तव्वं सिया, सेवं भंते । सेवं भंतेत्ति।
____ अर्थ-हे भगवन् ! मडादी ( मृतादी मृतभक्षक ) निर्ग्रन्थ, जिसने भव प्रपञ्च को रोका है, जिसने अपना कार्य पूरा कर दिया है, वह फिर इस संसार में नहीं आता ? हाँ गौतम ! मृतादी निग्रन्थ फिर यहाँ नहीं आता भगवन् ! उसको क्या कहना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org