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होता है, चीनी की बीमारी भी हो जाती है। बैठने से क्रिया हुई तो प्रतिक्रिया भी होनी चाहिए। जो घंटा भर बैठते हैं। वे कुछ समय के लिए खड़े होते हैं, घूमते हैं, क्योंकि अधिक बैठना रोग को निमंत्रण देना है। क्रिया का प्रतिपक्ष होना चाहिए। क्या यह लागू नहीं होता कि जहां असंयम है, उसमें संयम भी होना चाहिए? जिसके जीवन में व्रत-संयम नहीं, वह सुखी जीवन नहीं जी सकता। इन्द्रियों की उच्छृखलता जितनी बढ़ाएं उतनी बढ़ जाती है। महाभारत में लिखा है
'पंच वर्धन्ते कौन्तेय! सेव्यमानानि नित्यशः। आलस्यं मैथुनं निद्रा, क्षुधा क्रोधश्च पंचमः ॥'
आलस्य, मैथुन, निद्रा, क्षुधा और क्रोध-ये पांच सेवन से बढ़ जाते हैं, और सेवन कम करने से कम हो जाते हैं।
हमारे जीवन का असंयम, जिसके प्रति सहज आकर्षण प्रतीत होता है, कभी सफल नहीं होता। इतिहास में जो महापुरुष हुए हैं, चाहे वे विज्ञान के क्षेत्र के हों, चाहे शिक्षा के क्षेत्र के हों, चाहे धर्म के क्षेत्र के हों, चाहे राजनीति के क्षेत्र के हों, उन्होंने संयम किया है। उनका जीवन त्याग और ब्रह्मचर्यपूर्ण रहा है। इनके बिना जीवन-शक्ति भी केन्द्रित नहीं होती।
फ्रांस का एक वैज्ञानिक हुआ है। उसने विज्ञान पर नौ सौ निबन्ध लिखे। वह इतना चंचलचित्त था कि उसने एक भी निबन्ध पूरा नहीं किया। एक विद्वान् का मत है कि यदि वह पांच निबन्ध भी पूरा कर देता तो महान् वैज्ञानिकों की श्रेणी में आ जाता। मन की अस्थिरता के कारण वह सफल नहीं हो सका।
८६ में धर्म के सूत्र Jain Education International
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