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दो साधुओं की प्राकृतिक चिकित्सा देखी। पांच-सात दिनों तक एनिमा दिया। विशेष कुछ नहीं निकला। कई दिनों बाद थोड़ा मल आने लगा, फिर तो और अधिक आता रहा। महीने के बाद तो आश्चर्य होने लगा कि इतना मल कहां से आता रहा, जबकि भोजन और दूध सब बन्द था। केवल थोड़ा-सा रस दिया जाता था। इस पेट में विजातीतय तत्त्व इतना जाम पड़ा है कि हम कल्पना नहीं कर सकते। वैसे ही, हमारे मन में संस्कार जमे पड़े हैं। पर क्या यह बुराई है? नहीं, स्वाभाविक प्रक्रिया है। जमा हुआ निकलता है।
साधक को सतर्क रहना चाहिए। जब दबे संस्कार जागृत होते हैं उस समय यदि वह संभलकर नहीं चलता है तो कभी-कभी पागल भी हो जाता है।
लोग कहते हैं-जब बातें करते हैं या ताश यदि खेलते हैं तब मन स्थिर रहता है। जब ध्यान करने या मालाजाप में बैठते हैं तब मन की इतनी चंचलता होती है, जितनी पहले नहीं थी। इस अस्थिरता के कारण ध्यान या जाप को छोड़ना कायरता है। बुरे संस्कार जमे हुए हैं। वे संस्कार यदि उखड़ रहे हैं तो अच्छी ही बात है, उससे घबराओ मत। यह शुभ संकेत है।
- साधु साधक है। उसे सिद्ध मत मानिए। साधु भी अपने आपको माने कि मैं साधक ही हूं। श्रावक भी उसे साधु ही समझें। दीक्षा-स्वीकार के समय यह अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य
और अपरिग्रह का संकल्प लेता है। आप भी सामायिक में इन्हीं पांचों का संकल्प लेते हैं। दीक्षा लेने के पांच मिनट पहले गृहस्थ था। वही संकल्प लेते हुए पांच मिनट बाद साधु बन जाता
५८ म धर्म के सूत्र
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