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सम्यकदृष्टि (२)
'निशिदीपोऽम्बुधौ द्वीप, मरौ शाखी हिमे शिखी । कलौदुरापः प्राप्तोऽयं, त्वत्पादाब्जरजः कणः ॥'
भगवन्! कलिकाल में जो आपकी चरण-रज प्राप्त हुई है उसका हमारे लिए उपयोग है। आदमी अन्धकार में भटक रहा हो, उसे दीप मिल जाए, समुद्र में जाते हुए की नौका डूब रही है, अकस्मात् द्वीप आ जाए; मरुभूमि में जेठ मास की धूप में चल रही हो, अकस्मात् वृक्ष दीख जाए, हिमालय के पास ठंडक से ठिठुर रहा हो, उसे अग्नि मिल जाए, तो कितना आनन्द होता है ! निशा में दीप, समुद्र में द्वीप, मरुस्थल में वृक्ष, हिमालय में अग्नि के समान मेरे लिए आपके चरणों की रज है ।
आचार्य ने अपने हृदय की लहर भगवान के सामने व्यक्त की है। आचार्य की दृष्टि कितनी निर्मल है। जिसकी दृष्टि निर्मल नहीं होती वह मूल्य नहीं आंक सकता ।
दृष्टि की निर्मलता
'नाणेण जाणइ भावे, दंसणेण य सद्धए । चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झइ ॥ '
४८ धर्म के सूत्र
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